अपनी कमियों का दोष किसी और पर निकालना इंसानी फितरत का सबसे बडा गुण होता है. यह समाज में व्यापक रूप से इतना प्रभावी हो चुका है कि बिना किसी तरह की शिक्षा के यह गुण लोगों में आ जाता है. कई बार बचपन से ही यह गुण इंसान में दिखने लगता है. इस गुण को रोकने का प्रयास भी खूब किया जाता है. मुहावरा है कि ‘दूसरों में दोष निकालने से पहले अपने गिरेबां में झाकना चाहिये‘. असल मामलें में यह काम कोई भी नहीं करता है. इंसान की यह मनोवृति संस्थाओं को भी अपने प्रभाव में रखने लगती है. जिस वजह से संस्थाओं में भी यह गुण देखने को मिलने लगता है. सबसे समझने वाली बात यह है कि हर कोई यह मानता है कि वह अपनी कमियों को देखता है. अपना आत्मावलोकन करता है. जबकि अपवाद छोड कर लोग अपनी कमियों का दोष किसी और पर निकालतें है.

  लोगों का यह व्यवहार धार्मिक कहानियों की वजह से भी है. हमारे समाज में अधिकतर आचार विचार और व्यवहार धर्म की कहानियों के हिसाब से चलता है. जिनमें किसी भी काम की सफलता और विफलता के लिये खुद को दोषी नहीं ठहराया जाता है. हर घर में सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है. जिसकी पात्र कलावती का पति इसलिये मर जाता है क्योकि वह भाईयों के कहने पर नकली चंाद को देख कर पानी पीकर कर अपना व्रत तोड देती है. एक दूसरी कथा में कारोबारी बनिया के जहाज में भरा खजाना इस कारण कूडाकरकट हो जाता है क्योकि वह भी प्रसाद का अनादर करता है. हर कार्य के पीछे किसी और का दोष देने की प्रवृत्ति यही से जन्म लेती है.
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