दृष्टिहीन सुनीता को अपने जीवन में रोशनी का अभाव उतना नहीं सताता जितना उसे अपने भाईबहन के व्यवहार से दुख पहुंचता है. दरअसल, सुनीता के भाईबहन न सिर्फ उसे अंधी कह कर कोसते हैं बल्कि अपने कैरियर बनाने में उसे सब से बड़ी रुकावट भी मानते हैं. सुनीता के मातापिता अपनी दृष्टिहीन बच्ची को आत्मनिर्भर बनाने का अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करते हैं और इस काम में उन की अधिकांश जमापूंजी भी खर्च हो गई है. पैसे के अभाव में सुनीता के दोनों भाईबहनों की उच्च शिक्षा में रुकावटें आईं जिस के चलते चिढ़ की वजह से वे अपने दोस्तों के सामने अपनी बहन को अंधी कह कर पुकारने में भी गुरेज नहीं करते.

रामकुमार का 14 वर्षीय मूकबधिर पुत्र धीरज इस मामले में बेहद संतुष्ट है कि उसे आत्मनिर्भर बनाने में मातापिता के साथ उस के भाईबहन का भी उसे पूरा सहयोग मिलता है. अपने छोटे भाई धीरज से बातचीत करने और उसे समझने में किसी तरह की खुद को कोई परेशानी न हो, इस के लिए बड़े भाई ने बाकायदा ट्रेनिंग ली है. मातापिता धीरज का कुछ ज्यादा ही खयाल रखते हैं, इस से भी बड़े भाई को प्रेरणा मिलती है. रामकुमार की पूरी कोशिश यही रहती है कि धीरज को कभी भी अपनी कमियों का एहसास न हो. टैलीविजन पर फिल्म के किसी दृश्य पर जब सभी खिलाखिला पड़ते हैं तब धीरज को खामोश देख कर झट उस की बहन इशारों में उसे दृश्य का मतलब समझाती है तो वह भी खिलखिला पड़ता है.

परिवार में विकलांगों के प्रति व्यवहार कहीं प्रेम से भरा होता है और कहीं उपेक्षा का. आप जब अपने विकलांग बच्चे की उपेक्षा करते हैं तो उस का आत्मविश्वास डगमगा जाता है और वह जो कर सकता है वह भी नहीं कर पाता. वहीं प्रेम से भरा व्यवहार उसे सामान्य से बेहतर बनाता है. पेशे से व्यवसायी रमेश अग्रवाल के घर जब पहला बेटा हुआ तो घर खुशियों से भर गया लेकिन उन की यह खुशी तब मातम में बदल गई जब उन्हें यह पता चला कि उन का बच्चा न बोल सकता है न चल सकता है. इस तरह 3 साल के बाद भी अनेक इलाज व अन्य प्रयासों से बच्चे की लाचारी दूर न हो सकी. इस दौरान उन के घर में 2 सामान्य बच्चों ने भी जन्म लिया.

समय गुजरता रहा, बच्चे जवान हुए. अब उन के घर से भाइयों की कुछ इस तरह की खीझ भरी आवाजें सुनाई देती हैं:

‘‘आखिर इस का बोझ हम कब तक सहन करें, हमारा अपना भविष्य भी तो है?’’अपने युवा भाइयों की ऐसी ही कड़वी बातें सुन कर एक दिन अमितेष ने आत्महत्या कर ली. मरने से पहले लिखे पत्र में उस ने अपने भाइयों को लिखा था, ‘‘शारीरिक रूप से विकलांग मुझे कुदरत ने बनाया है लेकिन मानसिक रूप से विकलांग तुम दोनों ने बनाया है.’’

 वर्षों से विकलांगों के बीच काम कर रही स्वाति व्यास अपना अनुभव बताती हैं कि कई ऐसे परिवार हैं जहां विकलांग बच्चे को बोझ समझा जाता है. बचपन से मिली उपेक्षा और अपनी शारीरिक कमजोरियों की वजह से वह हीनता का शिकार हो जाता है जबकि मातापिता और भाईबहनों को चाहिए कि वे उसे ज्यादा से ज्यादा समय दें. अपने विकलांग भाई या बहन की खूबियों को उभारने में सहयोग दें तो यकीनन वह विकलांग बच्चा सामान्य से खुद को ज्यादा बेहतर साबित कर सकता है.

सहयोगी हों परिवार के सदस्य

अभिजीत जोशी एक ऐसे खुशहाल परिवार से है जहां मातापिता ने उन्हें अपने 2 सामान्य बच्चों से अलग नहीं समझा और न ही भाईबहनों ने उसे अपने से अलग समझा. यही वजह है कि सुविजीत और विजिता की तरह अभिजीत भी बतौर कंप्यूटर इंजीनियर एक अच्छी कंपनी में नौकरी कर रहा है. परिवार के सभी सदस्यों को मिल कर घर के विकलांग सदस्य के साथ सहयोग करना चाहिए और उस का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि वह आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे बढ़ सके. उसे उस की विकलांगता या कमी का बारबार एहसास दिला कर उसे कमजोर न बनाएं.

पूर्वजन्म का पाप नहीं

परिवार के सदस्यों के व्यवहार का अध्ययन करते हुए यह बात भी सामने आई कि कई परिवार अपने विकलांग बच्चे को अपने या उस के पूर्वजन्म के पापों का नतीजा मानते हैं. बचपन में पोलियो का शिकार हुई नेहा को अपने परिवार से भरपूर स्नेह और सहयोग तो मिलता है लेकिन कभी वह अपने मंझोले भाई के मुंह से यह सुन कर रोंआसी हो जाती है कि उस की यह अपंगता उस के पूर्वजन्म के किए पापों का नतीजा है. यह वैज्ञानिक सत्य है कि विकलांगता बच्चे को किसी बीमारी की वजह से होती है न कि पूर्वजन्म के पापों से. नेत्र रोग विशेषज्ञों का मानना है कि जन्म से अंधापन या शारीरिक विकृति आनुवंशिक समस्या या फिर विटामिन की कमी से होती है. गलत दवाओं का प्रयोग, आनुवंशिकता, सिफलिस, रूबिला वायरल इनफैक्शन होने से अंधापन, बहरापन और कटेफटे होंठ जैसी विकलांगता का शिकार गर्भ में पल रहा शिशु हो सकता है. विकलांगता पूर्वजन्म के पापों को फल है, ऐसी धारणा विकलांगों को न सिर्फ हतोत्साहित करती हैं बल्कि कभीकभी उन्हें आत्मघाती कदम उठाने के लिए विवश भी करती है. अपनी विकलांगता को ले कर हीनता का शिकार व्यक्ति यदि अपनी तकदीर को कोसता रहे तो यह शारीरिक विकलांगता से ज्यादा मानसिक विकलांगता है.

अपने लक्ष्य के प्रति जो लोग पूरी तरह समर्पित होते हैं उन्हें आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता है. चाहे वे सामान्य व्यक्ति हो या अपंग.

समाज की मानसिकता

कुदरत की मार झेल रहे विकलांगों को समाज जब कभी बेचारा कह कर दया दिखाता है तो स्वाभिमानी विकलांगों के लिए इस से बढ़ कर और कोई गाली नहीं होती. चलने और देखने में असमर्थ रायपुर निवासी कांती लाल बरलोटा समाज के ऐसे व्यवहार से सख्त नाराज होते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मैं सामान्य लोगों से भी बेहतर करने की क्षमता रखता हूं. प्रकृति ने मुझ से कुछ छीना है तो बदले में मुझे दूसरी विशेषता दी है. विकलांगों को समाज का सहयोग चाहिए न कि दया. ‘‘आप किसी दृष्टिहीन को रास्ता पार कराते हैं या किसी अपाहिज को सहारा दे कर उस को मंजिल तक पहुंचाते हैं तो यह न सोचें कि आप किसी पर दया या उपकार कर रहे हैं बल्कि यह सोचें कि आप इंसान हैं और एक इंसान के प्रति अपना मानवीय फर्ज अदा कर रहे हैं.’’

मातापिता की मुश्किलें

भाईबहन के अतिरिक्त जब घर में हैंडीकैप बच्चा हो तो मातापिता को भी अनेक मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. चूंकि उन्हें एक स्वस्थ बच्चे की अपेक्षा हैंडीकैप बच्चे को अधिक समय देना पड़ता है, उस की अधिक देखभाल करनी पड़ती है इसलिए कई बार स्वस्थ बच्चा इस बात को समझे बिना कि उस के हैंडीकैप भाईबहन को अधिक अटैंशन व देखभाल की जरूरत है वह पेरैंट्स से शिकायत करते हैं कि वे उस का कम ध्यान रखते हैं. ऐसे में मातापिता को अपने स्वस्थ बच्चे को प्यार से समझाने की जरूरत होती है कि आप का भाईबहन स्पैशल है और उसे आप के व हमारे अधिक प्यार और देखभाल की जरूरत है. जब भाई या बहन अपने हैंडीकैप भाईबहन की देखभाल के लिए कुछ स्पैशल करें तो उन्हें शाबाशी दीजिए, कोई रिवार्ड दीजिए ताकि स्वस्थ बच्चे के मन में अपने हैंडीकैप भाईबहन के प्रति ईर्ष्या या द्वेष पनपने के बजाय प्यारदुलार, सहयोग की भावना पनपे.

मिसाल हैं ये

दोनों हाथों से विकलांग वेदराम ने न तो समय को कोसा न ही अपाहिज होने पर जारजार रोए बल्कि समाज में अपने को स्थापित करने के लिए तथा अपने जैसों को प्रेरणा देने के लिए कड़ी मेहनत की और आखिर वह मुकाम पा ही लिया जिस की कल्पना की थी. रामपुर जिला उद्योग केंद्र में लिपिक के पद पर कार्यरत 40 वर्षीय वेदराम निर्मलकर के दोनों हाथ नहीं हैं. इस के लिए वेदराम ने अपने पैरों से ही हाथ का काम लेना शुरू किया और एमए तक की पढ़ाई कर ली. निर्मलकर पैरों में पैन दबा कर न केवल तेजी से अंगरेजी लिखते हैं बल्कि उन की सधी हुई लिखावट देख कर लोग दंग रह जाते हैं. वे पैरों से कपड़े धोते हैं, माचिस जला कर स्टोव पर चाय बना लेते हैं और तो और, सुई में धागा भी डाल लेते हैं.

नैशनल ज्योग्राफिक पर मार्शल आर्ट प्रशिक्षक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे पूरन चौहान की विकलांगता का समाज ने खूब मजाक उड़ाया तो उन्होंने उसे अपनी ताकत बना लिया. यही वजह है कि आज पूरन चौहान मार्शल आर्ट के क्षेत्र में कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं.

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