कानपुर की रहने वाली अवनि की शादी हरिद्वार के कार्तिक (दोनों बदले नाम) से 2 मई, 2019 को हुई थी. शादी के 4 दिन बाद ही दोनों को समझ आ गया था कि उन की पटरी किसी भी कीमत पर नहीं बैठेगी. लिहाजा, उन्होंने तलाक लेने का फैसला ले लिया. शादी के महज 25 दिन बाद, 27 मई को दोनों अलग हो गए.

आगे क्या हुआ, इसे जानने से पहले इन दोनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने परिवार, समाज और दुनिया की परवाह नहीं की कि लोग क्या कहेंगे. कार्तिक और अवनि दोनों की उम्र सिर्फ 20 साल थी, लेकिन जो हिम्मत, समझ और परिपक्वता उन्होंने दिखाई, वह काबिले तारीफ थी. एक बोझिल जिंदगी जीने से तो बेहतर है कि दोनों अलग हो कर आजाद जिंदगी जिएं और अपनी मर्जी के मुताबिक नए सिरे से इस अफसाने को एक खूबसूरत मोड़ पर ले जाएं. क्योंकि अंजाम उन्हें समझ आ गया था कि अच्छा तो होने से रहा.

जब उन्होंने अदालत का रुख किया, तो थोक में बिचौलियों की समझाइशें मिलीं, जिन का कोई असर न होते देख, इन्हें यह ज्ञान भी मिला कि तलाक कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं. इस के लिए कोई आधार तो होना चाहिए. इस पर अवनि ने कार्तिक के खिलाफ दहेज मांगने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. मामला परिवार न्यायालय में कोई 2 साल चला, जहां से तलाक तो नहीं मिला, लेकिन अदालत ने कार्तिक को आदेश दिया कि वह अवनि को 20 हजार रुपए महीने भरणपोषण के रूप में दे. इस पर झल्लाए कार्तिक ने नैनीताल हाईकोर्ट की शरण लेते हुए इस फैसले को चुनौती दी.

हाईकोर्ट में कोई 3 साल मामला चला. मुख्य न्यायधीश राकेश थपलियाल और जस्टिस ऋतु बाहरी ने बीती 4 अगस्त को फैसला देते हुए कहा कि पतिपत्नी के बीच कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं है. ऐसे में यह शादी एक बेजान मिलन के अलावा कुछ नहीं है. अगर दोनों पक्षों को तलाक नहीं दिया गया, तो यह दोनों पक्षों के लिए क्रूरता होगी. दोनों के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं है. समझौते के तहत हुए इस तलाक में कार्तिक को हुक्म दिया गया कि वह अवनि को स्थायी गुजारा भत्ते के रूप में एकमुश्त 25 लाख रुपये 26 सितंबर तक दे और अदालत को इस की पुष्टि करे.

अब थोड़ी देर के लिए इस मामले को होल्ड पर रखते हुए तलाक के आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत उन गिनेचुने देशों में शामिल है जहां तलाक की दर सब से कम है. यहां तलाक की दर महज 0.01 फीसदी है. फोर्ब्स एडवाइजर के मुताबिक, दुनिया में तलाक की सब से ज्यादा दर मालदीव में 5.52 है. कजाकिस्तान में यह दर 4.6 फीसदी और रूस में 3.9 फीसदी है. भारत में तलाक की कम दर के बारे में फोर्ब्स की वेबसाइट झिझकते हुए गोलमोल शब्दों में कहती है कि कम दरों को सख्त कानूनों द्वारा समझाया जा सकता है, जो विवाह को भंग करने की सीमा को सीमित करते हैं. भारत ने 2023 में बिना किसी गलती के तलाक की शुरुआत की, जबकि अमेरिका में यह अधिक उदार नजरिया दशकों से आदर्श रहा है.

अब यह तो भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं कि कानून ही सख्त नहीं हैं, बल्कि कानूनी प्रक्रिया उस से ज्यादा सख्त है. नहीं तो हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी में परस्पर सहमति से तलाक का प्रावधान है, लेकिन उस का उपयोग न के बराबर होता है. वकील से ले कर अदालत का बाबू और जज भी नहीं चाहते कि तलाक आसानी से हो. वजह साफ है कि ये सभी पूजापाठी होते हैं और शादी को ऐसा धार्मिक संस्कार मानते हैं जिस का टूटना धर्म और संस्कृति के लिए खतरा पैदा कर सकता है.

कार्तिक और अवनि का मामला इस का अपवाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि तलाक का मुकदमा लगभग 5 साल चला. इस अवधि में दोनों ने कितनी पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक पीड़ा भुगती होगी, इस का अंदाजा लगाना सहज नहीं है. इस पर भी हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री अहसान सा थोपते दी, जबकि यह उन दोनों का अधिकार था. हाईकोर्ट को तो इस बाबत खेद व्यक्त करना चाहिए था कि कानूनी खामियों के चलते इन दोनों को खामख्वाह 5 साल परेशानी उठानी पड़ी.

ऐसा कभी होगा, लगता नहीं, क्योंकि विवाह व्यवस्था पंडेपुजारियों की गिरफ्त में है. जो नहीं चाहते कि तलाक की दर बढ़े, क्योंकि ऐसा होने से लोगों का भरोसा धार्मिक रस्मों और मंडप के नीचे ली गई कसमों से उठने लगेगा. आजादी के 77 साल बाद शादी के तौरतरीकों में जो बदलाव आए हैं, उनसे हर कोई वाकिफ है. मसलन पहले तो जमीन पर बैठ कर पंगत खिलाई जाती थी, शादी 10-15 दिन तक चलती थी, बरात 3 दिन किसी स्कूल या खेत में रुकती थी वगैरहवगैरह. इन चर्चाओं और यादों में एक चीज ज्यों की त्यों है, वह है मंडप के नीचे पंडित की अनिवार्य मौजूदगी.

धर्म के इस कारोबार को समझना मुश्किल भले ही न हो, लेकिन इस से छुटकारा पाना नामुमकिन है क्योंकि कोर्ट मैरिज को किसी भी स्तर पर प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है. विवाह को धार्मिक संस्कार ही मानने की जिद की कीमत अवनि और कार्तिक जैसे लाखों कपल चुकाते हैं, जिन पर वैवाहिक जीवन भले ही वह नर्क तुल्य हो, को ढोने के लिए तरहतरह के दबाव बनाए जाते हैं. जो इस दबाव को मानने से इंकार करते हैं, उन के अदालत की चौखट पर पांव रखते ही ढीले पड़ने लगते हैं. अवनि और कार्तिक को शादी तोड़ने का फैसला लेने में महज 25 दिन लगे थे, लेकिन अदालत ने मंजूरी देने में 5 साल लगा दिए.

यह ठीक है कि अब दोनों आजाद हैं और मर्जी से रह और जी सकते हैं, और चाहें तो दूसरी शादी भी कर सकते हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि तलाक के बाद ही दूसरी शादी क्यों? तलाक की सालोंसाल चलती तकलीफदेह प्रक्रिया के दौरान ही क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि पहली शादी के कानूनी तौर पर न टूटने यानी तलाक होने तक दूसरी शादी करना अपराध है. हालांकि यह एक ऐसा अपराध है, जो पतिपत्नी में से किसी ने नहीं किया होता, लेकिन सजा दोनों को ही भुगतनी पड़ती है.

बेहतर तो यह है कि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ की तर्ज पर पतिपत्नी को शादी कर लेनी चाहिए और कोई सुबूत उस का नहीं छोड़ना चाहिए. ‘लिविंग टूगेदर’ इस के एक आकर्षक और बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है, जो लगभग शादी ही होता है. खासतौर से महानगरों में यह तरीका लोकप्रिय है और अब बी-टियर शहरों में भी दिखने लगा है. ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’ वाला फंडा हर्ज की बात नहीं है. तलाक जब होगा, तब होगा, लेकिन तब तक शादी से जुड़ी सुख और जरूरतें क्यों कोई छोड़े? इस बात पर अब अदालतों को सोचना चाहिए कि तलाक कोई शौक नहीं, बल्कि जरूरत और हक भी है. ठीक वैसे ही जैसे शादी है. लेकिन जब शादी में अदालत का कोई रोल नहीं तो तलाक में इतना लंबा क्यों?

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