देश को 2020 तक महाशक्ति बनाने के लिए सरकार कमर कस कर तैयार थी. इस के लिए देश को सिंगापुर कंट्री बनाना होगा और इस के लिए पहले राज्यों को सिंगापुर स्टेट बनाना जरूरी था. मंत्रियों ने फिल्म पुरस्कार समारोहों के टीवी कवरेज के कारण सिंगापुर के दृश्य देखे थे. बड़े लुभावने लग रहे थे. कई केंद्रीय मंत्री सिंगापुर में महीने दो महीने रह कर वहां के हालात से परिचित होने जा भी चुके थे. इस मामले में राज्य की भी हामी थी. उस के कई मंत्री अपने राज्य को सिंगापुर स्टेट बनाने के लिए असली सिंगापुर स्टेट के वातावरण के साथ सामंजस्य बिठाने की खातिर वहां 3-4 माह बिताने की इच्छा लिए कतार में खड़े थे. सुधार की ऐसी महामारी में शहर को भी खुजली होना स्वाभाविक था. उस ने भी खुद को सिंगापुर सिटी बनने का फैसला किया.
जलमल के लिए रखा गया बजट महापौर, उपमहापौर और कुछ पार्षदों की सिंगापुर यात्रा के लिए बलिदान हो गया. सिंगापुर के पास के द्वीप जेंटिंग की ऐश, फोर डी थिएटर में मजाक का पात्र बन कर और कैसीनो में चंद हजार रुपए हार कर लेकिन ‘दूसरे’ मौजमजे कर नगरनिगम की बरात लौटी. सैलानियों ने लौट कर बताया कि हमारे यहां की सब से बड़ी समस्या यातायात है. और यातायात की सब से बड़ी समस्या सड़कों पर अतिक्रमण है. और अतिक्रमण की सब से बड़ी वजह हम खुद पार्षद हैं.
बुद्धिजीवी कई दिनों से यातायात समस्या पर बयान पर बयान दिए जा रहे थे. प्रदूषण के आंकड़े दे कर नगरनिगम को चेता रहे थे कि संभल जाओ, अतिक्रमण शहर के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है. पिछली बार उन्होंने मौन जुलूस निकाला था. महापौर को ज्ञापन भी दिया था. बुद्धिजीवी होने के कारण वे एकदम तो किसी के विरुद्ध नहीं बोल रहे थे लेकिन आने वाले खतरे से सभी को डरा रहे थे. इतने प्रतिशत टीबी के मरीज होंगे. इतने प्रतिशत सांस की बीमारी से पीडि़त रहेंगे. हो सकता है कि इतने प्रतिशत बच्चे अपना पहला जन्मदिन ही न मना सकें. अतिक्रमण के लिए अशिक्षितों को जिम्मेदार ठहराया गया. वे विदेशों में अतिक्रमण की समस्या न होने का उदाहरण भी पेश करते रहे.
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सिंगापुर से लौटे बरातियों की आंखों के सामने अभी भी सिंगापुर बसा हुआ था. क्या तो चकाचक सड़कें, क्या तो सफाई, वहां की बातों की हरेक को याद आती रही. सभी ने स्थानीय समाचारपत्रों में यात्रा संस्मरण लिखे और अपनी लेखन प्रतिभा काप्रदर्शन किया. अपने शहर की आदत से मजबूर होने से वहां कचरा फेंकने के कारण जुर्माना भरने की बात भी स्वीकारी. लेकिन यह भी लिखा कि भारत जैसे बीपीएल देश में जुर्माने से बात नहीं बनेगी. नागरिकों को कचरा सिर्फ कचरापेटी में डालने की नसीहत देने के लिए अभियान चलाया गया. जम कर प्रचार किया गया. सड़कें इस अपील के परचों से भर गईं. प्रचार को और भी ताकतवर बनाने के लिए फिल्मी सितारों को कूल्हे मटकाने और छातियां हिलाने के लिए बुलाया गया. चोलीचड्डीघाघरे के गानों के बीच कचरापेटी को भी याद किया गया. खुमार उतरने के बाद कचरापेटियों के लिए टैंडर जारी किए गए. बात अभी सिर्फ प्रारंभिक अवस्था में थी. हां, अतिक्रमण का मामला नगरनिगम भूला नहीं था. उसी का अध्ययन करने के लिए तो सिंगापुर गए थे.
चलो, कचरे की बात तो हो गई लेकिन अतिक्रमण का क्या? सभी अतिक्रमणकारी तो पार्षदों के अपने ही लोग थे. बड़ी मुश्किल से दूसरी पार्टी के लोगों को लाद कर अपने क्षेत्र में नालियों के किनारे बसाया है. उन के वोटों से ही तो चुनाव जीतते रहे हैं. कहां जाएंगे वे बेचारे? कहां जाएंगे पार्षद बेचारे? लेकिन मानवीय दृष्टिकोण का भार कितने समय तक लादे रहें? राज्य सरकार ने भी तो साफसुथरे शहर को अवार्ड देने की घोषणा की है. सभी पार्षद कह रहे थे कि एक बार ले तो लें. फिर कोई जरूरत नहीं. पहला विजेता होने का सुख तो ले लें. लेकिन पहले यह तय करें कि कितने साल के पहले के अतिक्रमण को अतिक्रमण कहा जाए. इस पर बैठकों पर बैठकें होने लगीं. चायकचौरी पर हाथ साफ किए जाने लगे.
आखिर तय किया गया कि सही तसवीर पाने के लिए सरकारी स्कूल मास्टरों को सर्वे में लगाया जाए. वे स्कूल में करते ही क्या हैं? सरकार ने 9वीं तक सभी को पास करने का फरमान जारी किया है. ऐसे में न तो पढ़ने वालों का पढ़ने का मूड होता है और न ही पढ़ाने वालों को पढ़ाने का. वैसे भी मास्टर लोग पढ़ाने के बजाय वोटर लिस्ट बनाने, इंसान गिनने, जानवर गिनने, गटरें गिनने, शौचालय गिनने का ही तो काम करते हैं. क्यों न जोत दिया जाए उन्हें इस काम में? मास्टर जात होती ही इसलिए है. जिसे कहीं नौकरी नहीं मिलती वही तो मास्टर बनता है.
मास्टरों के सर्वे के मुताबिक बच्चे, जवान और बूढ़े अतिक्रमणों की फेहरिस्त बनी. तोड़े जाने वाले अतिक्रमण को नोटिस देने की बात हुई. राजनीति में अनफिट एक पार्षद ने आपत्ति की कि जब अतिक्रमण करते समय किसी ने नगरनिगम को नोटिस नहीं दिया तो हटाने के लिए नोटिस क्यों? इस पर एकमत से सभी ने उसे मूर्ख करार दिया. नोटिस जारी कर दिए गए. विरोधियों को मौका मिला. झंडे और डंडे निकल आए. जुलूस निकले. धरने हुए. मरनेमारने की बात हुई. हकीकत में हुई भी. हर पार्टी का हर बार का बंद भी सफल रहा. लेकिन जीत सुधार की, शहर को सिंगापुर बनाने के जज्बे की हुई, पहला अवार्ड लेने की इच्छा हुई. नतीजतन, भंगार पड़ी हुई जेसीबी मशीनें कई टैंडरों और फायदों के वादों के बाद मशीनें ब्यूटीपार्लर से निकल कर दहाड़ने लगीं. पहला अतिक्रमण हटा फुटपाथ पर सब्जी बेचने वालों का. खरीदारों के कारण तो नहीं लेकिन मुफ्त की सब्जी खाने वाले आवारा पशुओं के कारण यातायात में बाधा आ रही थी. सब्जियां मौल में मिलती तो हैं. लोगों को वहीं जाना चाहिए. इस से सड़कों पर न तो खरीदारों की भीड़ होगी और न ही आवारा पशुओं की.
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पार्षदों ने वोटों का बलिदान करते हुए सब्जी वालों की तरफ से मुंह मोड़ लिया. सिंगापुर नाने के ठोस इरादे से उन्होंने दूसरों को भी सबक सिखाया. चाय का ठेला लगाने वाला हरिया समझदार था. उस ने अपना ठेला सरकारी दफ्तर के ठीक बाहर लगाया था. दिनभर चहलपहल बनी रहती थी. देखते ही देखते उस ने पौश इलाके में पक्का होटल खोल लिया. लेकिन भावनावश यहां का ठेला नहीं छोड़ा. उस का अतिक्रमण हटाया गया. पास का पान का ठेला भी नहीं बच सका. वहां लोग सिगरेट फूंकते थे और सड़क को सरकारी दफ्तरों की सीढि़यां समझ कर पिचपिचाते थे, जिस से पर्यावरण को हानि पहुंचती थी. पंक्चर पकाने वाला भी गायब हो गया. क्योंकि रबड़ के धुएं से कार्बनडाइआक्साइड बनती थी जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होती है. यह बात और है कि बाद में खराब सड़कों के कारण लोग अपने पंक्चर हुए वाहन धकेलते हुए लाचार नजरों से ताकझांक करते नजर आने लगे.
जूता पौलिश की टैंपरेरी दुकान भी हट गई. ऐसे जूते बनने लगे हैं कि पौलिश की जरूरत ही नहीं होती. ऐसे में पौलिश वाले की उपस्थिति और अस्तित्व बेमानी थे. और जब रेफ्रिजरेटर आसान किस्तों में मिल रहे हों तो सड़क पर अतिक्रमण करने वाले मटकों की दुकानों का क्या औचित्य? सड़कों पर खस की टट्टियां बेचने वाले, सड़क पर अतिक्रमण किए हुए हैं, बस.
नागरिक भी अजीब हैं. कंपनियां ब्याज फ्री किस्तों में एअरकंडीशनर दे रही हैं तो लेते क्यों नहीं? उन के कारण ही ये खस की टट्टी वाले अतिक्रमण करते हैं. उन्हें भी हटाया गया. जेसीबी मशीनें अपना विजय पर्व मनाती हुई फिर से अटाला बनने गैरेज पहुंच गईं. सड़कें चौड़ी हो गईं. निवासियों को पहली बार पता चला कि अतिक्रमण उन के घर तक आ पहुंचा था. गली जैसी नजर आने वाली सड़कें अब सड़क जितनी चौड़ी हो गई हैं, यही सोचसोच कर सभी खुश हो रहे थे. आजाद सड़कें जल्द ही पक्की भी बन गईं. दृश्य सुहावना लगने लगा. बुरा सिर्फ सुबह सड़कें झाड़ने वालों को लगा. चाय, पान, सब्जी की दुकानें उन के झाड़ू लगाने के बाद खुलती थीं. इसलिए वे उतना हिस्सा छोड़ देते थे और सड़क की गंदगी के किसी भी इल्जाम से बच जाते थे. अब उन्हें पूरी सड़क साफ करनी पड़ती थी.
अतिक्रमण हटने से सड़कें चौड़ी होने के कारण अब वहां सब्जी वाले, जूता पौलिश वाले, चायपान के ठेले और मटके वाले नजर नहीं आते थे. अब वहां शेवर्ले, मर्सिडीज, औडी, बीएमडब्लू, होंडा सिटी कारें पार्क की होती हैं. मारुति तो इक्कादुक्का ही नजर आती हैं, क्योंकि शहर तो सिंगापुर कंट्री जैसा प्रतीत हो रहा है.
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