मोबाइल भी क्या बला है. इस कम्बख्त के करम से सैकड़ों लोग बतियातेबतियाते दुनिया से वौकआउट कर गए. इन में जो बच गए हैं वे चलतेफिरते टेढ़ी गरदनों को लिए झूठ के समंदर में गोते खा रहे हैं. मोबाइल की माया के साइड इफैक्ट का जवाब नहीं.
जिन 3 चीजों ने मु झे बहुत परेशान किया है उन के ज्यादा से कम के क्रम में नाम हैं : मोबाइल, टीवी और बीवी. आखिरी 2 का उद्भव हुए काफी समय हो चुका है और बड़ेबड़े मनीषी उन के विषय में बहुतकुछ कह चुके हैं, इसलिए मैं कुछ नहीं कहूंगा.
ये जो मोबाइल जी हैं, क्या कहें इन को? जब से हमारे देश में आए हैं अच्छेअच्छों को इम्मोबाइल बना दिया है, भले वे कहते रहें, वौक व्हेन यू टौक.
इंगलैंड के एलैक्जेंडर ग्राहम बेल ने 1878 में टैलीफोन से बातें कर के दूरियों को मिटा दिया था. लगभग 100 साल बाद उन के अमेरिकी साथी वैज्ञानिक डा. मार्टिन कूपर ने मोबाइल फोन का आविष्कार कर के दूरियों को इतना कम कर दिया कि हम ने कभी सोचा न था. मोबाइल राजा को रंक बना देता है, कैसे? जरा राजा से पूछो. न मोबाइल होता न उन की कुरसी जाती.
मोबाइल में वह सब है जो टीवी में है और उस से कुछ ज्यादा ही है जो हमें अभारतीय होने की ओर बढ़ा रहा है. जब यह नहीं था, हम सुबहसवेरे घर से निकल कर पड़ोसियों का हालचाल पूछ लेते थे. जब से यह आया है, हालचाल पूछने के लिए इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि दरवाजा खोलते समय यह उन के कान पर लगा होता है और जब तक उन की वार्त्ता समाप्त नहीं हो जाती, हम गली के कुत्ते की तरह खड़े गरदन ऊपरनीचे करते इंतजार करते रहते हैं.
पहले दूध लेने जाते थे तो पड़ोसी के साथ बतियाते चले जाते थे, अब वे मोबाइल पर सैकड़ों से हजारों किलोमीटर दूर के लोगों से बतियाते चलते हैं पर अपने पड़ोसी से बात करने की उन्हें फुरसत नहीं होती.
एक मनोरंजक दृश्य जब मैं ने पहली बार देखा तो समझ में नहीं आया कि यह क्या हो रहा है. सामने सड़क पर एक लड़का चला आ रहा था और लगातार बड़बड़ा रहा था, मु झे लगा पागल हो गया है. पास आया तो देखा कि कानों से एक इअर फोन का तार लटक रहा था जो जेब में रखे मोबाइल से जुड़ा था और वह मोबाइल पर बातें कर रहा था.
एक और मिला जो कान में काला काकरोच चिपकाए बातें कर रहा था. ये नजारे अब बिलकुल सामान्य हो गए हैं, इसलिए हैरानी नहीं होती. बस, कूपर साहब को लाखों को पागल बनाने पर बधाई देने का मन करता है. बेल साहब का फोन घर पर या औफिस में एक जगह होता है, सो जो भी बात होती, खुल्लमखुल्ला ही होती. पर यह कूपर साहब का झुन झुना बजे तो ले कर अकेले में खिसक लीजिए और फिर जीभर कर प्रतिबंधित बातें कीजिए.
इन सब से ज्यादा खतरनाक सीन है मोटरसाइकिल सवार की टेढ़ी गरदन में फंसा मोबाइल, जो सामने वाले को अलर्ट होने पर मजबूर कर देता है. मोटरगाड़ी वालों का भी कुछ ऐसा ही हाल है. एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में स्टीयरिंग. भला हो इन लोगों की लीला का जो अपनी इहलीला को जल्दी से समाप्त कर खुद इम्मोबाइल हो जाना चाहते हैं.
मोबाइल पर अर्जेंट वार्त्ता करते हुए ‘वौक व्हेन यू टौक’ के निर्देशानुसार कितने लोग पटरी पार करते या ट्रेन पर चढ़ते, वौक करते हुए इस दुनिया से वौकआउट हो गए, मगर मोबाइल नहीं छोड़ा. ऐसे दिल दहलाने वाले हादसों के आंकड़ों को पढ़ कर और सुन कर भी हमारे मोबाइल वीरों की अक्ल में कुछ नहीं आता. क्योंकि कान पर मोबाइल लगा है और अक्ल की बात तो दिमाग में कान या आंख से हो कर ही जाती है. गरदन, कमर और उंगलियां सब टेढ़ी होने और ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी’ का डर व मांबाप से जुदा होेने का भय भी, देश के सपूतों को मोबाइल से थोड़ा सा भी दूर नहीं कर पा रहा है.
लादेन ने मोबाइल का प्रयोग कभी नहीं किया और इतने साल वह चाचा सैम को छकाता रहा. छोटेमोटे लादेनों को यह अक्ल नहीं आती, वे पकड़े जाते हैं.
पहले जब किसी काम से बड़े साहब का फोन आता था तो छोटा अफसर अपनी बीवी से कहता था कि कह दो कि वे तो औफिस के लिए निकल चुके हैं, परंतु अब तो सीधा आप की जेब में रखा हुआ ही बजेगा और जान बचाने के लिए आप को खुद ही झूठ बोलना पड़ेगा. इसी प्रकार के झूठ अनेक स्थितियों में बोले जा रहे हैं.
निष्कर्ष यह है कि मोबाइल के प्रयोग से झूठ बोलने और इम्मोबाइल होने वालों का प्रतिशत बहुत बढ़ गया है, चरित्र के स्तर में भी निरंतर गिरावट आ रही है. इसलिए मेरी सलाह है कि अपने मोबाइल को अपना बैरी होने से रोकें. वैसे, जिंदगी आप की है, इसलिए मरजी तो आप की ही चलेगी.\