ऐसा देखा गया है कि मैदानी इलाकों में रहने वालों से हिमालय की वादियों में रहने वाले शेरपाओं के लंग्स ज्यादा मजबूत होते हैं. इन्हें एथलीट जीन के लिए जाना जाता है. ये अधिकतर नेपाल और तिब्बत के इलाकों में रहते हैं, पहाड़ों में ही ये बसते हैं. ये बहुत ऊंची जगहों पर जहां औक्सीजन की कमी होती है, वहां भी पहुंच जाते हैं.

एक अध्ययन में यह पाया गया है कि शेरपाओं के लंग्स की मजबूती नीचे रहने वालों से 30 प्रतिशत अधिक होती है. इस की वजह एक स्क्वायर सैंटीमीटर्स मसल्स में कोशिकाओं की अधिक संख्या का होना है. इस से उन के चैस्ट भी चौड़े होते हैं, जिस से लंग्स की कैपेसिटी और सरफेस एरिया बढ़ जाता है. इस के अलावा वे लंग्स से नियमित काम लेते हैं, जिस से इन की क्षमता बढ़ती जाती है. साथ ही, पहाडि़यों पर रहने वालों में हीमोग्लोबिन की मात्रा अधिक होती है, जिस से वे अधिक मात्रा में औक्सीजन ले सकते हैं. सो, उन के लंग्स मजबूत हो जाते हैं.

मजबूत जैनेटिक जींस

मुंबई के वोकहार्ड हौस्पिटल के चैस्ट फिजिशियन डा. कमलेश पांडे बताते हैं कि सालों से पहाड़ों पर रहने वाले के शरीर में कुछ एडौप्टेशन हो जाते हैं जो उन के जैनेटिक्स पर भी असर डालते हैं. उन के माइटोकौंड्रिया (कोशिकाओं में पाए जाने वाले माइटोकौंड्रिया को कोशिका का ऊर्जाघर या पावरहाऊस कहा जाता है, जो मां से संतान में स्थानांतरित होता है) कम औक्सीजन में भी अधिक काम कर लेते हैं. सैल्स को औक्सीजन की जरूरत कम होती है.

माउंटेन पर औक्सीजन का दबाव कम होता है, ऐसे में नौर्मल जमीन पर रहने वाले अगर पहाड़ पर जाते हैं तो उन्हें कम औक्सीजन लगने लगती है. उन के सैल्स को कम औक्सीजन मिलने की वजह से उन में सांस फूलने लगती है, लंग्स पर प्रैशर या पानी भर जाता है या फिर ब्रेन में भी सूजन होने का रिस्क रहता है. लेकिन सालों से वहां रहने वालों के शरीर की बनावट ऐसी होती है कि उन में  औक्सीजन की मात्रा कम रहती है. उन के ब्लड में आरबीसी की मात्रा अधिक प्रोड्यूस होती है. उन की मसल्स में भी औक्सीजन की मात्रा कम लगती है. अर्थात, कम औक्सीजन में भी वे काम कर सकते हैं, जिसे एरोबिक मैकेनिज्म कहा जाता है. इस में औक्सीजन की खपत कम होती है.

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