डर की भावना जब शक की सीमाएं लांघने लगती है तो वह फोबिया बन कर मानसिक रोगों को पैदा करने लगती है. कोरोना व लौकडाउन के दौरान बंद कमरे में रहने का सब से बड़ा दुष्परिणाम आइसोलेशन से पैदा हुई मानसिक बीमारियां रही हैं. मानसिक बीमारी की चपेट में कमोबेश कभी न कभी हर कोई आ जाता था. अवसाद, अनिद्रा, तनाव, चिंता, भय ये कुछ ऐसी मानसिक स्थितियां हैं जिन्हें बीमारी कहना किसी को नागवार भी गुजर सकता है. हालांकि मनोचिकित्सकों का मानना है कि एक हद तक तो ये स्थितियां ठीक हैं लेकिन जब ये एक सीमा से बाहर चली जाएं तो किसी को मानसिक तौर पर बीमार घोषित करने के लिए पर्याप्त होती हैं.

रोजमर्रा के जीवन में हम सब तनाव भय, नाराजगी, नफरत जैसी मानसिक स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हैं. किसी परिजन की मौत के दुख से भी हम सब कभी न कभी गुजरते ही हैं, लेकिन ये मानसिक स्थितियां बहुत ज्यादा देर तक या दिनों तक नहीं टिकतीं. एक समय के बाद हम स्वाभाविक जीवन में लौट आते हैं. लेकिन अगर कोई ऐसी मानसिक स्थिति से लंबे समय से गुजर रहा हो तो यह खतरे की घंटी है.

कुछ समय पहले तक समाज में किसी भी तरह की मानसिक समस्या का हल ओझा, बाबा, तांत्रिक और झाड़फूंक में ढूंढ़ा जाता था. अंधविश्वास और कुसंस्कार के चलते किसी भी राह की मानसिक समस्या के लिए किसी दूषित हवा या बयार, भूतप्रेत का साया को जिम्मेदार मान कर लोग बाबाओं व तांत्रिकों की शरण में चले जाया करते थे. गनीमत है कि इस कोविड के आइसोलेशन से परेशान लोगों ने अंधविश्वासों की शरण कम ली, पर अब फिर इन अंधविश्वासों को बेचने वालों ने व्यापार शुरू कर दिया है.

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