लेखक- भानु प्रकाश राणा

अल्पान केले को विभिन्न प्रदेशों में चंपा, चीनी चंपा, चीनिया, डोरा वाज्हाई, कारपुरा चाक्काराकेली इत्यादि नामों से जानते हैं. ये सभी प्रजातियां मैसूर समूह में आती हैं. स्वाद और सुगंध से भरपूर यह प्रजाति किसानों के लिए फायदे की फसल होती है. डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपुर, बिहार के प्रोफैसर सह मुख्य वैज्ञानिक (पौधा रोग) डाक्टर एसके सिंह ने बताया कि यह बिहार, तमिलनाडु, बंगाल व असम की एक मुख्य व प्रचलित किस्म है. इस का पौधा लंबा और पतला होता है. फल छोटे, उन की छाल पीली और पतली, कड़े गूदेदार, मीठा, कुछकुछ खट्टा व स्वादिष्ठ होता है. फलों का घौंद 20-25 किलोग्राम का होता है. प्रति घौंद 20-22 हत्था और प्रति हत्था 20-22 फिंगर्स (केला) होता है. इस प्रकार से कुल फलों की संख्या 250-450 हो सकती है. प्रकंद से लगाने पर फसल चक्र 16-17 महीने का होता है.

केले की खेती के लिए 6 से 7.5 पीएच मान की अम्लीय मिट्टी काफी अच्छी मानी जाती है. खेतों की मिट्टी की जांच कराने के बाद उस का सही इलाज कर के किसी भी खेत में केले की खेती की जा सकती है. केले की खेती के लिए सब से अच्छी बात यह है कि इसे सालभर में कभी भी लगाया जा सकता है. इस के पौधों को मजबूत बनाने के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम की जरूरत होती है. प्रति हेक्टेयर केले के 3,630 पौधे ही लगाने चाहिए और पौधों के बीच तकरीबन 1.82 मीटर की दूरी रखनी चाहिए. चीनिया केला बिहार की लोकप्रिय किस्म है. इस के पौधे केले की दूसरी प्रजातियों की तुलना में ज्यादा कोमल, पतले और कम बढ़वार वाले होते हैं. वैशाली जिले में चीनिया केले की बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. इस के अलावा समस्तीपुर और मुजफ्फरपुर जिलों में भी इस की बहुतायत खेती होती है. चीनिया केले का तना लंबा, पतला और हलके रंग का होता है. इस के पत्ते चौड़े और लंबे होते हैं. इस केले की घौंद काफी कसी हुई होती है. पके हुए चीनिया केले के छिलके का रंग चमकीला पीला होता है. इस के फलों की भंडारण कूवत बाकी किस्म के केलों से बेहतर होती है.

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