5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में देश का सब से बड़ा किसान वर्ग किसी राजनीतिक दल के एजेंउे में नहीं है. जो लोग किसानों की बात कर भी रहे हैं, वे उन को बरगलाने का काम कर रहे हैं. कोई कर्ज देने की बात कर रहा है, तो कोई कर्ज माफ कराने का दम भर रहा है. केंद्र में सरकार चला रही भाजपा तो किसानों को खेत की माटी का तिलक लगा कर रिझाने की कोशिश कर रही है. किसान चाहते?हैं कि उन की पैदावार बेकार न हो. उस का पूरा दाम मिले. ऐसे मुद्दे किसी पार्टी के लिए अहम नहीं रह गए हैं. किसानों को चाहिए कि वे जाति और धर्म की बातें छोड़ कर किसानी के मुद्दों को ले कर एकजुट हो कर वोट करें. तभी वे चुनाव में मुद्दा बन सकेंगे. 

उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव का चुनावी उत्सव शुरू हो चुका है. सब से बड़ी बात यह कि इन चुनावों में एक बार फिर से किसान के मुद्दे गायब हो रहे हैं. केवल किसानों को रिझाने के लिए ‘खेती की माटी से तिलक’ जैसे दिखावे हो रहे हैं. बात केवल किसी खास दल की नहीं है. सभी दलों में किसानों के मुद्दे केवल घोषणापत्र तक सीमित रह जा रहे हैं. चुनाव से पहले ‘खाट सभा’ कर के किसानों के हित साधने वाली कांग्रेस चुनाव में किसानों को भूल गई है.

कांग्रेस केवल किसानों के कर्ज माफ, बिजली बिल हाफ व समर्थन मूल्य का हिसाब जैसी बातें करती है. चुनाव से पहले कांग्रेस ने ‘27 साल यूपी बेहाल’ का नारा दिया. चुनावी रणनीति के तहत उसे समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना पड़ा, जिस की कई बार प्रदेश में सरकार रही है. ऐसे में अब यह नारा प्रभावी नहीं रह गया है. ‘खाट सभा’ में किसानों के मुद्दे उठा कर कांग्रेस को एक बढ़त मिली थी. बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में किसानों ने कांग्रेस का समर्थन किया. कांग्रेस ‘खाट सभा’ के असर को आगे नहीं बढ़ा पाई. गांवों में कांग्रेस के लोगों ने जो असर पैदा किया था, वह खत्म हो गया. सपा से गठबंधन के बाद तो गांव और किसान जैसे मुद्दे पीछे छूट गए. केवल कांग्रेस ही नहीं समाजवादी पार्टी भी किसानों के मुद्दों को ले कर चुनाव में जाती नहीं दिख रही है. अपने घोषणापत्र में सपा ने गांवों में रहने वाली महिलाओं को कुकर और दूसरे लोगों को स्मार्टफोन देने जैसे वादे किए पर किसानों के लिए सही तरह से बात को नहीं उठा पाए.

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