भारत जैसे कृषिप्रधान देश में किसान की कमाई का पूरा जिम्मा खेती पर टिका होता है. फसलों की लागत तेजी से बढ़ रही है और उपज प्रभावित हो रही है. उर्वरक खेती की अहम जरूरत होते हैं. कृषि में उपज बढ़ाने व पेड़पौधों की बढ़वार के लिए आमतौर पर इन का इस्तेमाल किया जाता है. ये जरूरी तत्त्वों की फौरन पूर्ति करते हैं. इन की मांग में कोई कमी नहीं आती. सभी फसलों के लिए ये जरूरी होते हैं. बाजार में मिलावटी व नकली उर्वरकों का भी बड़ा कारोबार है. नकली उर्वरकों की कीमत लगभग असली के बराबर ही होती है. इस धोखे व मुनाफे के गोरखधंधे में नक्कालों से ले कर एजेंट व दुकानदार तक शामिल होते हैं.

बेचारे किसान असलीनकली उर्वरकों के जाल में उलझ कर दोहरी मार झेलने को मजबूर होते हैं. नकली व मिलावटी उर्वरकों से फसल बरबाद हो जाती है और किसानों को बरबाद फसलों का कोई मुआवजा भी नहीं मिलता, लिहाजा वे सिर पीट कर रह जाते हैं. नकली उर्वरक बिल्कुल असली जैसे ही नजर आते हैं. जरूरी है कि इन से सावधान रह कर फसलों को बरबादी से बचाया जाए. वैसे वैज्ञानिक जैविक उर्वरकों को रासायनिक उर्वरकों से बेहतर मानते हैं. खास रासायनिक उर्वरकों में यूरिया, डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी), सुपर फास्फेट, जिंक सल्फेट व पोटाश खाद शामिल हैं. इन का इस्तेमाल चूंकि ज्यादातर फसलों में किया जाता है, इसलिए इन की मांग और खपत भी ज्यादा है. मिलावटखोरों ने इन्हें भी नहीं बख्शा. पोटाश में नमक व डीएपी में कंकड़पत्थर तक की मिलावट की जाती है.

नकली उर्वरकों को बेचने के लिए किसानों को सस्ते का लालच दिया जाता है. कभीकभी लुभाने के लिए कोई छोटेमोटे गिफ्ट रख दिए जाते हैं. दुकानदारों को इस में चूंकि काफी मुनाफा मिलता है, इसलिए वे चाहते हैं कि असली के बजाय नकली ही ज्यादा बिके. किसान दोहरी मार झेलते हैं. वैज्ञानिक दीपक शर्मा कहते हैं कि नकली खादें न केवल स्वास्थ्य बल्कि पर्यावरण के लिहाज से भी ठीक नहीं है. इन का असर बेहद खराब होता है. ये जहर समान हैं और मिट्टी की सरंचना तक को बदल देती हैं. मिट्टी का न्यूट्रल 6 से 7 पीएच रहना चाहिए. नकली खाद के इस्तेमाल से न्यूट्रल प्रभावित होता है. सभी तरह के खतरों से बचने के लिए जैविक खादों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना चाहिए.           

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