चौथे दिन बुखार टूटा. दीपा को कुछकुछ अच्छा भी लग रहा था. दोपहर को रुचि ने बाहर धूप में बैठा दिया था. ‘‘तेरी पढ़ाई का तो बहुत नुकसान हो रहा है, रुचि.’’

‘‘कुछ नहीं होता मां, मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘एकसाथ कितना सब जमा हो जाएगा, बड़ी मुश्किल होगी.’’

‘‘कोई मुश्किलवुश्किल नहीं होगी. वैसे भी कालेज कभीकभी गोल करना चाहिए.’’

‘‘अच्छा, तो यह बात है.’’

‘‘तुम तो बेकार ही चिंता करती हो, मां. कल पिताजी आ जाएंगे. कल से वे छुट्टी ले कर तुम्हारे साथ बैठेंगे, मैं कालेज चली जाऊंगी,’’ रुचि ने पीछे से गलबांही डाल कर सिर को हौले से उस के कंधे पर रख दिया. ‘कितनी बड़ीबड़ी बातें करने लगी है उस की नन्ही सी गुडि़या,’ मन ही मन सोच दीपा ने स्नेह से बेटी को अंक में भींच लिया. ‘‘मां, मां, तुम अच्छी हो गईं,’’ स्कूल से लौटा सौरभ गेट से ही चिल्लाया और दौड़ कर आ कर मां की गोद में सिर रख दिया.

‘‘अरे बेटा, क्या कर रहे हो, पीठ पर मनभर का बस्ता लादेलादे घुस गया मां की गोद में जैसे कोई नन्हा सा मुन्ना हो,’’ रुचि ने झिड़का. ‘‘मां, देखो न दीदी को, जब से तुम बीमार पड़ी हो, हर समय मुझे डांटती रहती है,’’ सिर गोद में छिपाएछिपाए ही सौरभ ने बहन की शिकायत की. प्रत्युत्तर के लिए रुचि ने मुंह खोला ही था कि दीपा ने उसे चुप रहने का संकेत किया. फिर स्वयं दोनों को सहलाती रही, चुपचाप. बच्चे बदले कहां थे? वे तो बस बड़े हो रहे थे. किशोरावस्था की ऊहापोह से जूझते अपने अस्तित्व को खोज रहे थे. ऊंची उड़ान को आतुर उन के नन्हेनन्हे पर आत्मशक्ति को टटोल रहे थे. मां के आंचल की ओट से उबरना, उम्र मां की भी थी तो समय की आवश्यकता भी. फिर जननी को यह असमंजस कैसा?

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