सौरभ भी पढ़ाई की पुस्तकों से समय पाता तो वाकमैन से गाने सुनने लगता. अब कोई भला उसे कैसे पुकारे? वाकमैन उतरा नहीं कि ‘वीडियो गेम’ के आंकड़ों से उलझने लगता.

अकेलेपन से उकता कर दीपा पास जा बैठती भी तो हर बात का उत्तर बस, ‘हां, हूं’ में मिलता.

‘अरे मां, करवा दी न तुम ने सारी गड़बड़. इधर तुम से बात करने लगा, उधर मेरा निशाना ही चूक गया. बस, 5 मिनट, मेरी अच्छी मां, बस, यह गेम खत्म होने दो, फिर मैं तुम्हें सबकुछ बताता हूं.’ पर कहां? 5 मिनट? 5 मिनट तो कभी खत्म होने को ही नहीं आते. कभी टीवी चल जाता, तो कभी दोस्त पहुंच जाते. दीपा यों ही रह जाती अकेली की अकेली. क्या करे अब दीपा? पासपड़ोस की गपगोष्ठियों में भाग ले?

अकारण भटकना, अनर्गल वार्त्तालाप, अनापशनाप खरीदफरोख्त, यह सब न उसे आता था न ही भाता था. उस के मन की खुशियां तो बस घर की सीमाओं में ही सीमित थीं. अपना परिवार ही उसे परमप्रिय था. क्या वह स्वार्थी और अदूरदर्शी है? ममता के असमंजस का अंत न था. गृहिणी की ऊहापोह भी अनंत थी. ऐसा भी न था कि घरपरिवार के अतिरिक्त दीपा की अपनी रुचियां ही न हों.

हिंदी साहित्य एवं सुगमशास्त्रीय संगीत से उसे गहरा लगाव था. संगीत की तो उस ने विधिवत शिक्षा भी ली थी. कभी सितार बजाना भी उसे खूब भाता था. नयानया ब्याह, रजत की छोटी सी नौकरी, आर्थिक असुविधाएं, संतान का आगमन, इन सब से तालमेल बैठातेबैठाते दीपा कब अपनी रुचियों से कट गई, उसे पता भी न चला था. फिर भी कभीकभी मन मचल ही उठता था सरगमी तारों पर हाथ फेरने को, प्रेमचंद और निराला की रचनाओं में डूबनेउतरने को. पर कहां? कभी समय का अभाव तो कभी सुविधा की कमी. फिर धीरेधीरे, पिया की प्रीत में, ममता के अनुराग में वह अपना सबकुछ भूलती चली गई थी.

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