सच सुबह की सूर्य की किरणों की तरह जरूरी है. जैसे एलईडी लाइट्स सूर्य का मुकाबला नहीं कर सकतीं ठीक वैसे ही सच का मुकाबला भी झूठ नहीं कर सकता. यह जरूर है कि जब से मानव सभ्य हुआ है उस ने झूठ का एक बहुत बड़ा बोझ सिर पर लाद रखा है और यह बोझ अब बढ़ रहा है. रीतिरिवाजों, धार्मिक अंधविश्वासों, काल्पनिक कहानियों, दुनिया के पैदा होने के झूठे तरीकों के बोलबाले का 500 साल पहले पर्दाफाश होना शुरू हुआ और नतीजा रहा औद्योगिक क्रांति, कानून का राज, लोकतंत्र, विज्ञान का विकास, नई तकनीक, मशीनें और अब मोबाइल डिजिटल युग.

मोबाइल और कंप्यूटर का डिजिटल युग अब झूठ का सब से बड़ा निर्माता बन गया है. धर्म के बाद इसी का नंबर आएगा.

धार्मिक पुस्तकों में जितना झूठ भरा है, डिजिटल डिवाइसों ने सब ग्रहण कर लिया है. अब इस झूठ को जम कर फैलाया जा रहा है. सूर्य की तेज रोशनी में अंधेरी काली किरणें कैसे फैलाई जा सकती हैं, डिजिटल क्रांति में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं.

यह काली स्याही दिमाग को कुंद बना रही है, देखा जा सकता है. आज का युवा डिजिटल नशे में सोचनेपरखने और तर्क करने की कला खो रहा है. जो मैसेज आया, अगर चटपटा है तो आगे 100 लोगों को भेज दो. सच है या काला, जानने की कोशिश भी न करो. किसी का क्लिप बनाया, आगे खिसका दो, वायरल कर दो. बिना जाने कि यह किस तरह नुकसान पहुंचा सकता है. अपनी ओर से जोड़ने की कुछ जरूरत ही नहीं. दूसरे को तो एहसास दिलाना है कि आप मौजूद हैं, बस. क्या कह रहे हैं, सच कह रहे हैं, झूठ कह रहे हैं, यह न आप जानते हैं न दूसरी तरफ वाला.

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