बिहार में नीतीश कुमार की सरकार शराबबंदी कुछ ज्यादा ही उत्साह से लागू कर रही है. एक मामले में एक व्यवसायी, जिस के पास शराब बेचने का लाइसैंस था, बची शराब घर में रखने पर उस के घर को ही सील कर दिया गया. उस के द्वारा उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाए जाने पर कई सप्ताह बाद मकान खोला गया. शराब खराब है पर शराबबंदी का मतलब यह भी नहीं कि अफसरों को मनमानी करने का हक मिल जाए. खासतौर पर जब उन औरतों को फर्क पड़ रहा हो जिन के स्वास्थ्य व सुरक्षा के लिए शराबबंदी की गई है.

घरों को अपराधों के लिए इस्तेमाल नहीं करा जा सकता, यह ठीक है पर यदि कोई अपने पैसे बचाने के लिए इस तरह का काम करने को बाध्य हो तो शराब को जब्त करा जा सकता है, मकान को सील कर के घर वालों को बाहर निकालना शराबबंदी को अलोकप्रिय बनाना होगा. शराब का प्रचलन पैसे वालों ने लूटने के लिए किया है और उस में खुद सरकार का हस्तक्षेप है, यह सिद्ध करा जा सकता है. शराब की कमाई का एक बड़ा हिस्सा सरकारों के पास जाता रहा है और वर्षों तक जो सरकारें शराब को प्रोत्साहित करती रहीं वे अचानक उसे बंद कर दें तो यह गलत सा है.

होना तो यह चाहिए कि शराबबंदी के साथ शराब के प्रचार पर भी रोक लगे, कानूनी नहीं, सामाजिक. यह नेताओं का काम है कि वे घरघर जा कर उसी तरह शराब को न पीने की सलाह दें जैसे वोट मांगते हैं. अभी शराबबंदी 1-2 राज्यों में लागू है पर इस की वजह से वोट मिलते हैं, यह देख कर अन्य राज्य भी शराबबंदी के लिए तैयार होने लगे हैं.

वहां जहां अभी शराबबंदी  नहीं, इसे गौहत्या की तरह या कहिए कि उस के मुकाबले वे आंदोलन का रूप देना चाहिए, साथ ही अंधविश्वासों का भी विरोध किया जाए ताकि भगवाई शराबबंदी को अपना हथियार न बना लें.

इस दौरान पुलिस का इस्तेमाल कम किया जाए. शराब न मिले, न आसानी से पी जाए, न बने, न बिके. यह सरकार करे पर पुलिस के बल पर नहीं. जिस भी देश ने इसे जबरन थोपने की कोशिश की है मार ही खाई है. नीतीश कुमार सरकार को पुलिस का इस्तेमाल करे बिना शराब को बिहार से निकाल फेंकना चाहिए, लोगों को उन के घरों से नहीं.

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