जो पहले छोटे दुकानदार बन सकते थे. कैमिस्ट की दुकान खोल सकते थे. अपनी टैक्सी खरीद कर चला सकते थे. सडक़ के किनारे खोखा लगा कर किराने का सामान बेच सकते थे. जो मोबाइल बेचने के लिए 5 फुट बाई 5 फुट का काउंटर लगा सकते थे. कृषि मंडी में आढ़ती का काम कर सकते थे. स्टेनोग्राफर बन सकते थे. टाइङ्क्षपग की दुकान खोल सकते थे. एक छोटा सी पीसीओ चला सकते थे. रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशतर का सच्चाझूठा सॢटफिकेट बना कर किसी बस्ती में डाक्टर की दुकान खोल सकते थे. आज टैक्नोलौजी, बड़े पैसे, टैक्नोंक्रेटों, सरकारों के कानूनों, औन लाइन बाजार के आगे गुलाम बन रहे हैं.
आज किराने की दुकान के मालिक का बैग पीठ पर बड़ा सा बैग लाद कर बाइक पर घरघर औन लाइन बुक किया सामान पहुंचाने वाला बन गया है. छोटे हलवाई के मालिक का बेटा अब स्वीगी का खाना दरवाजों पर पहुंचा रहा है. टैक्सी मालिक उबर के साथ की गुलामी कर रहा है.
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मोटा पैसा ये कंपनियां बना रही हैं जिन्होंने एप बनाए, मोटा पैसा लगा कर लोगों को बहका कर छोटे व्यापार बंद कराए, घर पर सेवा की सुविधा देने के नाम पर छोटे दुकानदारों का काम चौपट किया.
आज उन युवाओं की भीड़ बढ़ रही है जो किसी बड़ी कंपनी के सिर्फ डिलिवरी बौय हैं, ठेके पर, हर पैकेट की डिलिवरी पर पैसे मिलने वाले. वे कब तक काम कर सकते हैं, जब तक टै्रफिक नियमों को दरकिनार करते हुए जोखिम लेते हुए 40 मिनट की दूरी 30 मिनट में पूरी कर सकें. आज मैकेनिक वे हैं जिन्हें किसी एप से बुक करा गया और जो मनचाहा दाम नहीं पा सकते, केवल कमीशन पाते हैं और अच्छे रिव्यू के लिए ग्राहक से गिड़गिड़ाते हैं.