दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका ‘दी कैरेवान’ द्वारा औनलाइन प्रकाशित रिपोर्ट 4 जजों की प्रैस कांफ्रैंस के लिए मुख्यतया उत्तरदायी रही. यह जस्टिस रंजन गोगोई ने स्पष्ट कर दिया है. दी कैरेवान की उक्त रिपोर्ट के अनुसार, सीबीआई की विशेष अदालत के जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की नागपुर में मृत्यु संदेहास्पद स्थिति में हुई थी. जज लोया गुजरात में सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ में हुई मौत के मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर लगे आरोपों की जांच कर रहे थे.
दी कैरेवान की उस रिपोर्ट के तथ्यों को झूठा या गलत साबित करने के लिए पहले कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा रिपोर्टें भी प्रकाशित/प्रसारित की गई थीं पर उन से कोई संतुष्ट नहीं हुआ था. मुंबई हाईकोर्ट में मुंबई लौयर्स एसोसिएशन ने एक रिट याचिका प्रस्तुत की थी और उस पर 23 जनवरी से सुनवाई शुरू होनी है. इसी बीच, किसी ने सुप्रीम कोर्ट में रिट दायर कर दी और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने इसे स्वीकार करते हुए अपनी मरजी की एक बैंच को मामला सौंप दिया.
दी कैरेवान की रिपोर्ट के तथ्य सही प्रश्न ही उठा रहे हैं, इसीलिए मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के बाद के 4 वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने गहरी आपत्ति की और शुक्रवार 12 जनवरी को 12.15 बजे एक प्रैस कांफ्रैंस कर वह मतभेद जनता के बीच जाहिर कर डाला जो आमतौर पर जजों के चैंबरों तक सीमित रहता है.
दी कैरेवान की रिपोर्ट सनसनी फैलाने के लिए नहीं थी और उस में तथ्यों को तोड़ामरोड़ा नहीं गया था. हमेशा की तरह दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं तथ्यों पर आधारित सामग्री प्रकाशित करती हैं चाहे हमारा तथ्यों को देखने का नजरिया अलग हो. दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं सरिता, मुक्ता, सरस सलिल इस तरह के तथ्यपरक लेखों के लिए 1945 से ही प्रसिद्ध रही हैं और सरिता में प्रकाशित गौपूजा, कितना महंगा धर्म, राम का अंतर्द्वंद्व, न्यायालयों में भ्रष्टाचार, संसद सदस्य चादरवाला जैसे मामलों में लंबे मुकदमे चले, पर हर मामले में न निष्ठा को चुनौती दी जा सकी न तथ्य गलत साबित किऐ जा सके. आखिरकार, हर मामले में जीत दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं की ही हुई.
जज बृजमोहन हरकिशन लोया का मामला भी ऐसा ही है. दी कैरेवान की रिपोर्ट में केवल मृत्यु के बाद हुई घटनाओं से पैदा संशय पर प्रकाश डाला गया है. अपने न्यायिक दायित्व को ईमानदारी से निभाते हुए जज लोया ने अमित शाह को न्यायालय में प्रस्तुत होने से छूट देने से भी इनकार कर दिया था जबकि उन के बाद आने वाले जज ने कुछ ही दिनों में अमित शाह को निर्दोष घोषित कर दिया.
इस मामले की सुनवाई मुंबई उच्च न्यायालय में ही चलनी चाहिए थी पर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने इसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर और अपनी इच्छा द्वारा बनाई एक बैंच को सौंप कर 4 वरिष्ठ जजों को चौंका दिया और उन्हें मामला चैंबरों से निकाल कर पूरे देश की जनता के सामने लाने को मजबूर कर दिया.
कुछ की आपत्ति है कि इन 4 जजों ने आंतरिक मामले और मतभेद को सामने ला कर न्यायपालिका को कमजोर किया है पर सच यह है कि जनता के समर्थन से ही न्यायपालिका मजबूत रह सकती है. यदि इंदिरा गांधी के समय जनसमर्थन होता तो न्यायपालिका उस समय अनावश्यक आपातकाल को गैरकानूनी घोषित कर सकती थी. एक प्रधानमंत्री का न्यायिक फैसले के कारण हटना किसी भी सूरत में आपातस्थिति नहीं हो सकती. आज वही माहौल बन रहा है जहां मंत्रिमंडल, संसद, सांसद, राज्य सरकारें असहाय सी हैं और जज तक सरकारी हां में हां मिला रहे हैं.
न्यायपालिका स्वतंत्र होती तो नोटबंदी जैसे कदम को आम व्यक्ति की संपत्ति छीनना कहा जा सकता था. न्यायपालिका इस मामले पर सरकारी दबाव से टालमटोल कर रही है. जब वह ट्रिपल तलाक कर क्रांतिकारी निर्णय दे सकती हैं तो संपत्ति जब्त करने के मूर्खतापूर्ण सरकारी फैसले पर क्यों नहीं दे सकती.
देश की स्वतंत्रता जनता के हाथ में है. वोट अगर धर्म और जाति के नाम पर दिए जाने को स्वतंत्रता कहा जाए तो उत्तर कोरिया भी स्वतंत्र है जहां 99.7 प्रतिशत लोग अपने वोट तानाशाह को देते हैं. स्वतंत्रता न्याय व अभिव्यक्ति के पैमानों पर तय होती है. हम इस स्वतंत्रता की रक्षा खुद करें. 4 जजों ने जनता के सामने स्पष्ट किया है कि यह खतरे में है. क्या जनता न्यायपालिका के साथ खड़ी है?
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