इस बार आईएएस की परीक्षाओं में जिन 4 लड़कियों ने पहले 4 रैंक पाए हैं उन में से 2 ओबीसी हैं. यानी, उन्होंने बिना आरक्षण के अपने बलबूते पर जाति व औरत होने की पौराणिक धार्मिक बाधा पार की है. पहला स्थान जिस लडक़ी ने पाया है वह भी बहुत साधारण घर की व बिन बाप की लडक़ी है.
रैंकिंग में अब आईएएस की परीक्षाओं में जनरल कैटेगरी और आरक्षित कैटेगरी के उम्मीदवारों के नंबरों में अंतर बहुत कम रह गया है और साधारण पृष्ठभूमि की होने के बावजूद लडक़ेलड़कियां जाति की जंजीरें तोड़ रहे हैं. यह आरक्षण की वजह नहीं है कि कम योग्य लोग ऊंचे स्थानों पर बैठने लगे हैं, बल्कि यह उस स्वतंत्रता की देन है जो आधुनिक शिक्षा, तकनीक, विज्ञान, तर्क व भेदभाव के वातावरण ने दिया है.
जहां गांवोंकसबों में आज भी दलित पिट रहे हैं, ओबीसी के साथ लोग कट कर रहते हैं, मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, वहीं देश का एक हिस्सा बराबरी और शिक्षा का पूरा लाभ उठा रहा है. लड़कियां पहल कर पा रही हैं क्योंकि चाहे वे जनरल कैटेगरी की हों या आरक्षित वर्ग की, उन्हें घरों में रहना होता है जहां उन्हें पढऩे का समय, स्थान व अवसर मिल रहा है.
आरक्षित वर्ग में दलित अभी भी काफी पीछे हैं क्योंकि उस समाज का शोषण आज भी जारी है. अब जब से धर्म का व्यापार जम कर चलने लगा है, जाति में निचले लोग कुछ ज्यादा ही भाग्यवादी होने लगे हैं और वे अपना समय इस पूजापाठ व धार्मिक जुलूसों में लगाने लगे हैं जो किसी काम का नहीं हैं बल्कि खाइयों को गहरा करता है. 20-25 वर्ष की आयु में आईएएस जैसी कठिन परीक्षा पास कर लेना एक बड़ी सफलता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि ये चुने लडक़ेलड़कियां सिविल सर्विसेज को सिर्फ वैरियर नहीं मानेंगे बल्कि देश को बदलने की रणभूमि भी मानेंगे. अब कई सालों से सब से सशक्त पोस्टों पर सिर्फ ऊंची जातियों के लोग नहीं, लड़कियां व निचली जातियों के इतने अफसर हैं कि वे देश व समाज दोनों को बदल सकते हैं.
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