इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालतों को आदेश दिया है कि उन्हें सरकार या पुलिस का माउथपीस बन कर उन के हर सहीगलत काम पर अपने विवेक का इस्तेमाल किए बिना अदालती मोहर नहीं लगा देनी चाहिए. देश में फैली रिश्वतखोरी और अराजकता की असल में सब से बड़ी जिम्मेदार निचली अदालतें हैं जिन में से अधिकांश हर सरकारी ऐक्शन को सही ठहराती हैं या तुरंत उस पर स्टे लगाने से इनकार कर देती हैं.
जब तक ऊंची अदालतों से फैसला लिया जाता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. तब तक नागरिक के जिस भी अधिकार का हनन हो रहा था, हो चुका होता है और या तो वह जेल में महीनों बेबात में बिता चुका होता है या उस की संपत्ति को बरबाद किया जा चुका होता है या उस का काम बंद हो चुका होता है.
भारत की न्याय प्रणाली ऐसी है कि सब से निचली अदालत के पास वही अधिकार हैं जो सुप्रीम कोर्ट के पास हैं. अदालतों को अपने निर्णयों की पुष्टि ऊपरी अदालतों से सरकारी दफ्तरों की तरह नहीं करानी होती है. मजिस्ट्रेट या सब जज का फैसला अगर उस पर अपील न की जाए तो वह उतना ही प्रभावी होता है जितना सुप्रीम कोर्ट का.
मौजूदा कानून व्यवस्था के तहत देश में तारीख पर तारीख देने का जुल्म हो रहा है तो वह इसलिए कि निचली अदालतें वह निर्णय नहीं देतीं जो ऊपरी न्यायालयों द्वारा तय कानून कहता है. वे, दरअसल, आंख मूंद कर सरकारी पक्ष की हां में हां मिलाती हैं. एक वरिष्ठ जज का कहना है कि निचले स्तर के नएनए आए जज पुलिस व प्रशासन से उलझना नहीं चाहते. कुछ अपनी ऐक्टिविस्ट जज की छवि बनने नहीं देना चाहते. वे स्थानीय कलैक्टर, सांसद, विधायक, डीआईजी, एसपी, एसएचओ, सैकड़ों इंस्पैक्टरों को नाराज नहीं करना चाहते.