राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत ने 3 दिन तक दिल्ली के सरकारी विज्ञान भवन में संघ की सोच और इरादों पर काफीकुछ नया कहा जो अब तक लिखी गई संघ की किताबों में नहीं था. जातिवाद यानी वर्ण व्यवस्था पर हर तरह से टिका संघ अब कहने को तो सब को साथ ले कर चलने की बात कर रहा है पर जमीनी तौर पर उस की सरकार ने न तो मुसलमानों के लिए, न पहले के अछूतों और शूद्रों के लिए, जो अब दलित और पिछड़े कहे जाते हैं, नया करने का कुछ ऐलान किया है. बातें करने में हमारे पंडे, पुरोहित, ऋषिमुनि हमेशा ही माहिर रहे हैं. बात तो उन धर्मग्रंथों की है जो वर्ण व्यवस्था, छूतअछूत को हम पर थोपते हैं. क्या संघ उन्हें हिंद महासागर में फेंकने को तैयार है? कहने को कि हम सब को बराबर मानते हैं पर शादी तो कुंडली देख कर ही होगी, खाना तो बराबर वालों के साथ ही खाएंगे. मोहन भागवत ने इस अलगाव की दीवारों को मिटाने की कोई कोशिश की ही नहीं.

जिन देवीदेवताओं में ऊंचनीच का भेदभाव रहा, उन्हीं ने अपनों से लड़ाई की है. भारत भूमि में रहने वालों पर जीत की वजह से ही उन्हें पूजा जाता है और उन्हीं को सिरमाथे पर रख कर कैसे कह सकते हैं कि हम सब को बराबर मानते हैं. रातदिन जो पाठ और कहानियां हिंदुत्व के नाम पर कही जाती हैं उन में जन्मों का जिक्र होता?है, दस्युओं, दैत्यों का जिक्र होता है. जिन के वारिस ही आज देश की बहुसंख्यक जनता हैं, उन के बारे में हिंदुत्व की क्या कोई नई सोच मोहन भागवत की कहने की हिम्मत है?

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