अच्छे दिनों की आस में रियो डि जेनेरो गई अब तक की सब से बड़ी ओलिंपिक टीम ने आखिर में भारत की झोली में एक कांस्य व एक रजत पदक डाल कर देश का सिर भले फख्र से ऊंचा कर दिया, फिर भी इतनी बड़ी टीम से मात्र 2 पदक आना निराशाजनक ही कहा जाएगा. इस से तो यही साबित होता है कि भारत में किसी तरह का विकास नहीं हो रहा है, विनाश दिख रहा है. आज के किशोर मोबाइल, जाति, कोचिंग और परीक्षाओं के गुलाम हो रहे हैं और जिन खेलों में शक्ति लगती है, उन में वे फिसलते जा रहे हैं. ‘चक दे इंडिया’, ‘मैरी कौम’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ के नामों से फिल्में बनाने और तिरंगा लहराने से देशभक्ति नहीं आती. देशभक्ति के लिए, देश के लिए, अपने लिए, समाज के लिए, कुछ करना होता है और हमारे राजनीतिक/सामाजिक नेताओं ने ऐसा तंत्र खड़ा कर दिया है जिस में उत्साह, लगन, परीक्षा व लक्ष्य गायब हो गए हैं. इस वातावरण में रियो डि जेनेरो में भारतीय खिलाडि़यों का फीका प्रदर्शन जताता है कि विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था असल में कितनी खोखली है.

खेलों के प्रति उत्साह 6-7 साल की आयु से शुरू हो जाता है, पर देश में तो स्कूलों को पैसा कमाने की लत लग गई है, जिस से खेल की जगह जुगाड़बाजी और इश्तिहारबाजी ने ले ली है. स्कूली शिक्षा के बाद जेईई में आने वाले बच्चों के फोटो छपते हैं, मैडल लेने वालों के नहीं. गांवों के बच्चों ने कुछ दिन ओलिंपिक जैसे खेलों में चमक दिखाई थी पर धीरेधीरे वह भी गायब हो गई है. गांवों में खेल के मैदानों पर मकान उग आए हैं. गांव में अब कुश्ती नहीं होती, वहां डंडों से जाति, धर्म और गौमांस खाने पर लड़ाई होने लगी है. पूरे देश का माहौल दूषित हो गया है और इन में सूरजमुखी और चमेली के फूलों की कोई जगह नहीं है.

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