आरक्षण के खिलाफ ऊंची जातियों ने अपनी मुहिम को तेज कर दिया है. आरक्षण कट्टर व हिंदूवादियों की आंखों में खटकने वाला सब से बड़ा मुद्दा है. हिंदू कट्टरपंथी जनता न मुसलमानों से गुस्सा है न पाकिस्तान से. यह केवल बहाना है. उसे तो असल में उन शूद्रों व अछूतों से नाराजगी है जो आरक्षण के सहारे सदियों से बनी वर्ण व्यवस्था के किनारों पर बाहर से सीढि़यां लगा कर चढ़ रहे हैं. वे उस पर चौतरफा हमला कर रहे हैं और समाज के हर उस वर्ग को जमा कर रहे हैं जिसे आरक्षण से फायदा नहीं मिल रहा या जो आरक्षण की गुत्थी को मंदिरों के पूजापाठ के धुएं की वजह से समझ नहीं पा रहा है.
आरक्षण जन्म से नीचे कहे जाने वाले लोगों के लिए कच्चे धागे की तरह ही है, यह हाल में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में मान लिया है. मामला थोड़ा रोचक है. सुनीता अग्रवाल पैदा तो बनियों में हुई पर उस ने प्रेम विवाह उस वीर सिंह से कर लिया जो जाटव जाति का है. 1991 में सुनीता को एक सर्टिफिकेट मिल गया कि वह जाटव है और उसे पठानकोट, पंजाब के एक स्कूल में आरक्षण के आधार पर पोस्ट ग्रेजुएट टीचर की नौकरी मिल गई. 2013 में किसी ने शिकायत कर दी कि वह तो ऊंची जाति की है.
तहसीलदार ने 2013 में 1991 में जारी किया सर्टिफिकेट कैंसिल कर दिया और सुनीता सिंह (अग्रवाल) को सर्टिफिकेट लौटाने को कहा. 2015 में केंद्रीय विद्यालय संगठन ने उस की नौकरी खत्म कर दी. मामला अदालतों में गया. गनीमत है न्याय में देर है, अंधेर है का फार्मूला उस पर लागू नहीं हुआ और 2016 में मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया जिस ने 19 जनवरी, 2018 को अपना फैसला भी सुना दिया.
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