लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है कि एक अकेले व्यक्ति की भी सुनी जाए और उसे अल्पमत में होने के कारण कोई नुकसान न हो. संविधान बहुमत या शक्तिशाली की रक्षा नहीं करता. वह अकेले व कमजोरों की रक्षा करता है और यह रक्षा उसे सर्वोच्च न्यायालय से मिलती है. अफसोस कि भारत और अमेरिका दोनों बड़े लोकतांत्रिक देशों में अब सर्वोच्च न्यायालयों पर इकलौते नागरिकों का भरोसा कम होता जा रहा है, खासतौर पर अगर वे अकेले ही नहीं, आर्थिक रूप से कमजोर भी हों.

अमेरिका में डौब्स बनाम जैक्सन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अकेली औरतों को चर्च समर्थित बहुमत के शेरों के सामने असुरक्षित पटक दिया है. रो बनाम वेड के 1973 के मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि औरतों को गर्भपात का संवैधानिक अधिकार है और फैडरल या केंद्र सरकार यह अधिकार छीन नहीं सकती. अब धार्मिक दबाव में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अमेरिकी संविधान में ऐसा कोई अधिकार नहीं और राज्य सरकारें अपनी मरजी से अपने बहुमत के आधार पर फैसला कर सकती हैं कि औरतें गर्भपात करा सकती हैं या नहीं.

भारत में मंदिरों, वैचारित स्वतंत्रताओं, हेट स्पीच, पुलिस की तानाशाही, आकारण रात के 8 बजे पकड़ ले जाने के मामले हर रोज सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक पहुंच रहे है और साफ है कि बहुमत का धर्म बहुत से मामलों में काफी प्रभावित कर रहा है. हिंदू आरोपियों को तुरंत राहत मिल जाती है अगर उन पर सत्ता का हाथ हो, जबकि, राहत टाली जाती रहती है अगर आरोपी सत्ताविरोधी हो. केंद्र सरकार के वकील निजी शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट ही नहीं, निचली अदालतों में भी खड़े हो कर स्पष्ट करते रहते हैं कि सरकार की मंशा क्या है. एनफ़ोर्समैंट डिपार्टमैंट का कार्य विपक्षी नेताओं को परेशान करने का रह गया है, वहीं अदालतों ने एकतरफा कारवाईयों के प्रति आंख मूंद रखी है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...