सुप्रीम कोर्ट ने न जाने किस कानून के अंतर्गत यह आदेश दिया है कि हर थिएटर में दिखाई जाने वाली फिल्म के प्रारंभ में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है और उस दौरान सब को खड़ा होना पड़ेगा. किसी याचिकाकर्त्ता की याचिका पर निर्णय देते समय यह आदेश दिया गया है. कोई भी व्यक्ति किसी भी मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दर्ज रखने का मौलिक अधिकार रखता है और सुप्रीम कोर्ट कईयों पर विचार कर लेता है और ज्यादातर पर सुनवाई कर के उन्हें खारिज कर देता है.

देशभक्ति के नाम पर राष्ट्रगान थोपना ठीक उसी तरह का काम है जैसा हिंदू होने के नाते सुबह सूर्य नमस्कार करना या मुसलमान होने के कारण नमाज पढ़ना या फिर ईसाई होने के कारण खाने से पहले प्रार्थना करना. ये सब काम जन्म से घुट्टी की तरह पिला दिए जाते हैं ताकि एक तरह की अंधभक्ति पैदा हो जाए और कोई भी धर्म या देश के फैसलों को तर्क, व्यावहारिकता, कथनी, स्वतंत्रताओं, निजता के अधिकारों के नाम पर चुनौती न दे सके. देशभक्ति आज असल में धर्म भक्ति का पर्याप्त बन गई है. आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट इस से ऊपर रहा करता था और धर्म को या उस की छाया को राजनीतिक फैसलों से बचाती रही है पर न जाने क्यों इस पीठ ने एक ऐसा फैसला दे दिया जो ऊपर से अच्छा लगते हुए भी अंदर चोट पहुंचाता है.

देश के लिए जीना, काम करना और मरना सब के लिए हर देशवासी को तैयार रहना चाहिए, क्योंकि इसी से सामूहिक शक्ति और सुरक्षा मिलेगी. जिस देश में शारीरिक सुरक्षा नहीं है- 2014 के रेप कांड के बाद रेप बंद नहीं हुए, धार्मिक दंगे बंद नहीं हुए, कर चोरियां कम नहीं हुईं, दहेज हत्याओं में कमी आई है पर इसलिए कि अब हर युवा मौत को दहेज हत्या नहीं कहा जाता. आर्थिक सुरक्षा नहीं है. सरकार जेब, अलमारी में रखे धन को 8 मिनट के भाषण से छीन सकती है और घंटों, दिनों अपना पैसा लेने के लिए लाइनों में खड़ा कर सकती है. सरकार की निगाह हर औरत के सोने पर है. जहां सरकार महंगाई नहीं रोक पा रही हो. जहां सरकार करों की भरमार करने में लगी है. मानसिक सुरक्षा नहीं है. भारतपाक सीमा पर हर रोज घुसपैठिए आते हैं और सैनिकों को मार डालते हैं. मध्य भारत में माओवादी सक्रिय हैं, खालिस्तानी आज भी अलग देश का सपना देख रहे हैं. ऐसे देश में देशभक्ति क्या मनोरंजन के समय राष्ट्रगान से आ जाएगी?

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