गुजरात में मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल का त्यागपत्र यह साफ करता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा अब चल नहीं रहा. पहले पाटीदार विद्रोह हुआ जिस कारण बिना वजह नेता हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में रखा गया और अब ऊना में गाय का चमड़ा उतारने के नाम पर दलितों की बेरहमी से की गई पिटाई से दलित आक्रोश का फैलना भारतीय जनता पार्टी के लिए बुरे संकेत हैं.

यह बात गुजरात कांग्रेस के लिए कोई सुखद संदेश लगे, ऐसा भी नहीं है. गुजरात की भाजपा और कांग्रेस में कोई मूलभूत अंतर नहीं है. दोनों पार्टियां संतोंमहंतों के इशारों पर चलती हैं और दोनों का मुख्य आधार वे पिछड़े पटेल--जिन की बीसियों उपजातियां हैं--हैं, जो अब पैसे वाले हो गए हैं, पर अब संतोंमहंतों का आदेश आंख मूंद कर मानने को तैयार नहीं हैं.

2002 में कांग्रेस का समर्थन करने वाले मुसलिमों को खलनायक बना कर नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीते थे, पर धीरेधीरे नायक कौन है, समझ आने लगा है और नायकों के सेवक पिछड़े व दलित विद्रोह पर उतर आए हैं. उन्होंने सरकार के खिलाफ मोरचा खोल कर भाजपा की दशकों की मेहनत पर पानी फेर दिया है और पिछले पंचायत व नगरपालिका चुनावों में यह बात साफ हो गई थी कि आनंदीबेन पटेल नरेंद्र मोदी की चमक का लाभ नहीं उठा पा रहीं.

गुजरात में इस तरह के बदलाव पहले भी होते रहे हैं, क्योंकि चाहे जो कहा जाए गुजरात कोई विशिष्ट राज्य नहीं है. वहां की सरकारें और समाज वैसे ही हैं, जैसे और जगह हैं और गुजराती व्यापारी थोड़े ही ज्यादा जाने जाते हैं. ऐसा नहीं है कि उन्होंने देश के व्यापार पर एकाधिकार जमा रखा हो.

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