फ्रांस ने 18वीं सदी की क्रांति को इस बार वोट क्रांति से दोहराया है. नए राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रोन ने सामंतवादी शक्ल की मेरीन ली पेन की पार्टी के मुकाबले दोगुने वोट ले कर फ्रांस का राष्ट्रपति पद ही नहीं पाया, धर्म आधारित व कौर्पोरेटों को संरक्षण देने वाली सरकारों की आ रही बाढ़ पर शायद एक ब्रेक लगाया भी है.

कैथोलिक चर्च द्वारा समर्थित मेरीन ली पेन की नैशनल पार्टी के सपने औन मार्च पार्टी ने चकनाचूर कर दिए. ली पेन को अपनी पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने में कुछ साल तो लगेंगे ही. ली पेन की पार्टी का एजेंडा उलझा हुआ है.

भारतीय जनता पार्टी की दोमुंही बातों की तरह ली पेन की पार्टी भी धर्मनिरपेक्ष, तर्क और स्वतंत्रता के अधिकारों के जनक कैथोलिक धर्म को मानती है जिस का काला इतिहास आम व्यक्ति को चर्च का गुलाम बना कर रखने का है और जो सेवा के बहाने घरघर में घुस कर औरतों, गरीबों के अधिकारों को कुचल कर उन्हें चर्च के हाथों में पकड़ाता रहा है.

39 वर्षीय युवा इमैनुअल मैक्रोन फ्रांस की राजनीति में एक नया युवा खून ला रहे हैं. वे फ्रांस के यहूदियों, मुसलिमों और उदार प्रोटेस्टैंटों के लिए राहत हैं. फ्रांस का अब यूरोपीय यूनियन को छोड़ने का सवाल ही नहीं उठता और फ्रांस के शरणार्थी अब राहत की सांस ले सकते हैं. फ्रांस पर जिहादी हमलों ने इमैनुअल मैक्रोन के वोटों को घटाया नहीं, बल्कि बढ़ाया क्योंकि कुछ जिहादी पूरे देश की मानसिकता को ब्लैकमेल नहीं कर सकते.

जिओ और जिए देने दो, लोकतंत्र की मूल भावना है. धर्म और कौर्पोरेट (आज के सामंत, जमींदार, नवाब) आजकल फिर सत्ता में आने के लिए वोटतंत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं और अमेरिका, भारत, ब्रिटेन में वे सफल होते दिख भी रहे हैं क्योंकि आम कमजोर लोग हांके जाने में एक सुरक्षा महसूस करते हैं. स्वतंत्रता उन्हें भयभीत करती है.

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