पंजाब में लोकसभा उपचुनाव में संगरूर सीट पर सिमरनजीजीत सिंह मान की जीत जांच का विषय है. यह सीट आम आदमी पार्टी ने अकेले लोकसभा सदस्य भगवंत सिंह मान के पंजाब के मुख्यमंत्री बनाए जाने पर दिए त्यागपत्र की वजह से खाली हुई थी. वर्तमान मुख्यमंत्री की सीट पर किसी और पार्टी की जीत तो आश्चर्यजनक है ही, बड़ी बात है कि सिंमरनजीत सिंह मान की नीतियां.
सिमरनजीत सिंह मान न भारतीय जनता पार्टी के सदस्य है, न कांग्रेस के और न पंजाब में बरसों राज किए थिरोमणी अकाली दल के. सिमरनजीत ङ्क्षसह मान सिख राजनीति के कट्टरवादियों में से कहे जाने चाहिए और भ्रामक एजेंडे के समर्थक हैं.
वह पंजाब जो 1980 के आसपास सुलगने लगा था और जिस में न केवल सैंकड़ों मारे गए. ब्लूस्टार आपरेशन हुआ और इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या भी हुई. राजीव गांधी ने जैसेतैसे कर के इस मामले को सुलटाया था पर अब हिंदू कट्टरता के चलते सिख कट्टरता भी सिर उठाने लगी है और जहां शिरोमणी अकाली दल (बादल) और भारतीय जनता पार्टी दोनों हाशिए पर आ गई हैं, सत्ता आम आदमी पार्टी के नौसिखिए हाथों में आ गई है.
सिमरनजीत सिंह मान की जीत के पीछे एक वजह यही है कि जनता समझती है आप का मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान मात्र कठपुतली है जिसे राज चलाना नहीं आता. सिर्फ अच्छा गायक होना काफी नहीं है. पंजाब के धर्म के कट्टर लोगों ने पहले शिरोमणी अकाली दल के प्रति गुस्सा कांग्रेस को जिता कर दिखाया था, फिर आम आदमी पार्टी को जिता कर और अब सिमरन जीत सिंह मान को.
पंजाब का आज उबलना देश के लिए खतरनाक है. वैसे ही भगवा नीतियों के कारण देश भर के मुसलमान, दलित और पिछड़ों के बहुत से हिस्से राजनीति, नौकरी, सुरक्षा के सवालों पर हाथिए पर होने के कारण बेहद खफा है. ऐसी हालत में पंजाब, जो जम्मू कश्मीर से सटा है, पाकिस्तान से सीमा जुड़ी है, नाराज होने लगा तो बहुत भारी पड़ेगा.
धर्मजनित राजनीति किसी देश, समाज को कभी नहीं भाई. समाज को हमेशा धर्म ने लूटा है, बहकाया है. आगे बढऩे से रोका है. धर्म लोकप्रिय इसलिए नहीं है कि वह अच्छी बात बताता है, इसलिए है कि यह निठल्ले कार्यकर्ताओं को जमा कर लेता है, उन्हें खूब झूठी कहानियां बोलने की ट्रेङ्क्षनग देता है और फिर घरघर जा कर बहकाने की लगातार कोशिश करता है. पंजाब में अब क्या 1980 के दिन लौट रहे हैं जहां धर्म के सहारे न जाने क्याक्या किया जाएगा और फिर कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए केंद्र को इंदिरा गांधी की तरह कुछ अनावश्यक करना होगा. अगर ऐसा हुआ तो जिम्मेदारी उन की होगी जिन्होंने पिछले 40 साल से राजनीति को भगवा रंग की बाल्टी में डुबा कर रखने की पूरी सफल कोशिश की है वह भूल गए कि इस बाल्टी में दूसरे रंगों के भी टुकड़े पड़े हैं.