मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, तेलंगाना आदि राज्यों में किसानों का आंदोलन, जो कहीं हिंसक हुआ है तो कहीं थोड़ा शांत है, देश के लिए चुनौती बन सकता है. किसानों को लग रहा था कि उन की जातियों की सरकारें बनेंगी तो उन का उद्धार करेंगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.
हरियाणा में देवीलाल और भूपिंदर सिंह हूडा की सरकारें हों या बिहार में लालू प्रसाद यादव व उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की, किसानों की समस्याएं इतनी विकराल हैं कि उन के अपने भी इन को सुलझा नहीं पाए. भारतीय जनता पार्टी ने धर्म के झुनझुने के सहारे किसानों में पैठ बनाई कि वह तो ऊपर वाले की देन है. भाजपा के इस झुनझुने से किसान प्रभावित हुआ और उस ने नरेंद्र मोदी को एक के बाद एक जीतें दिलाईं.
लेकिन किसानों का हाल फिर भी वही रहा. और अब तो खूनी संघर्ष में बदलने लगा है. किसान असल में जो मांग रहे हैं, वह दिया नहीं जा सकता. न कर्ज माफ हो सकते हैं, न उत्पादन का उन्हें इतना मूल्य दिया जा सकता है कि वे आराम से रह सकें.
सदियों से जातिव्यवस्था ने ऐसा तंत्र बुन रखा है कि अनपढ़ किसान यह जान ही नहीं पाते कि उन की कमाई जाती कहां है. रातदिन खेतों में धूप, ठंड, बरसात, कीचड़ में काम करने वाले किसान आज हो सकता है भुखमरी के शिकार न हों पर उन की धनसंपत्ति कुछ हजार की ही है जबकि उन की मेहनत पर पलने वाले नंबरदार, पटवारी, आढ़ती, दलाल, महाजन, तहसीलदार, वकील, फूड कंपनियां, रेस्तरां, होटल अरबों की संपत्ति के मालिक होने लगे हैं.