कन्हैया कुमार से बेबात का झगड़ा मोल ले कर स्मृति ईरानी ने अपना कद घटा लिया है. शिक्षा मंत्री की हैसियत के लायक वे थीं या नहीं यह अगर छोड़ भी दिया जाए, जिस तरह उन्होंने कन्हैया कुमार के मामले में टैलीविजनी तेवर दिखाए थे वे आसानी से पच नहीं सकते थे. नरेंद्र मोदी ने समझ लिया पर फिर जता दिया कि केवल इमोशंस पर सरकार नहीं चलती. स्मृति ईरानी का कन्हैया कुमार से विवाद निरर्थक था. उन का इस मामले से कुछ लेनादेना नहीं था. यही बात हैदराबाद के रोहित वेमुला की आत्महत्या से थी, स्मृति ईरानी बेबात की ऐजुकेशन क्वीन बनने की कोशिश में संसद व बाहर कट्टरपंथी लाइन ले कर खड़ी हो गईं और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की नेता बन गईं जबकि उन का मंत्रिपद परिषद की पोस्ट से कहीं ऊंचा था.

यह मानने की बात है कि बिना फौर्मल ऐजुकेशन के भी वे शिक्षा मंत्रालय संभाल रही थीं. वैसे यह कोई अनूठी बात नहीं है. दिल्ली विश्वविद्यालय के सभी कालेजों को चलाने वाले अधिकांश लोग साधारण पढ़ेलिखे व्यवसायी या नेताओं के संगीसाथी हैं, जिन्हें शिक्षा के बारे में कुछ पता है. वैसे भी जो प्रिंसिपल या वाइस चांसलर बनते हैं वे भी इन लालाओं तथाकथित समाजसेवियों और नेताओं की सुनते हैं. स्मृति ईरानी शिक्षा मंत्री की पोस्ट पर कोई अजूबा न थीं. वे तेजतर्रार और कुछ करना चाहती थीं पर थोड़ी जल्दबाजी में और थोड़ी फारसाइटिडनैस की कमी ने उन को इस ऊंचाई से ला पटका है.

हालांकि उन के कुछ करीबियों का कहना है कि उन्हें शिक्षा मंत्री से हटाया इसलिए गया है, क्योंकि उन्हें 2017 के उत्तर प्रदेश के चुनावों का भार सौंपा जाना है जहां अगर पार्टी जीती तो वे मुख्यमंत्री भी बन सकती हैं. पावर कौरिडोरों में क्या छिपा है, यह किसी को नहीं मालूम होता. फिर भी शिक्षा मंत्रालय को स्मृति ईरानी से छुटकारा मिला, यह थोड़ा रिलीफ है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...