अगर संविधान न बना होता तो इस देश में केवल पंडितों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती. 1946-47 की संविधान सभा की बहस की रिपोर्ट पढ़ें तो यह साफ दिखता है कि कांग्रेस के भी ज्यादा जोर से बोलने वाले सदस्य किसी न किसी तरह पौराणिक राज को लाने की कोशिश कर रहे थे पर जवाहर लाल नेहरू, भीमराव अंबेडकर व अन्य कई सुधारकों के कारण जो संविधान बना उस नेअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मूल मंत्र बना दिया. आज फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है.

पुणे पुलिस द्वारा 5-7 वामपंथी विचारकों की गिरफ्तारी तो केवल एक नमूना भर है. यह तो हर कदम पर हो रहा है. स्वामी अग्निवेश की रक्षा उन के अपने भगवा वस्त्र भी नहीं कर पाए और सरकार की कृपा से उन पर हमला करवा दिया गया. भगवाई ट्रौलरों ने यह सिद्ध कर रखा है कि स्वतंत्रता पर एकाधिकार केवल उन का है. वे जितनी मर्जी गालियां दें, कोई कुछ नहीं कहेगा, दूसरे खरीखरी बात से जवाब देंगे तो पुलिस खटखटाने पहुंच जाएगी. देश भर में सैकड़ों के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं क्योंकि उन्होंने सरकार या सरकार की मानसिकता के खिलाफ कुछ बोला या लिखा है.

इस के प्रत्युत्तर में उन हजारों को छोड़ा जा चुका है जिन्होंने केवल धमकियां नहीं दीं अपितु खुलेआम मारपीट की और कुछ मामलों में तो हत्याएं तक कर डालीं. भगवा सोच के आरोपियों पर कमजोर मामले बनाए जाते हैं ताकि 3-4 दिन बाद उन्हें जमानत मिल जाए. जहां जेल से निकलते ही उन का फूलों से स्वागत होता है, उधर दूसरी तरफ अपने विचारों को अभिव्यक्त करने और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने वालों को जेलों में आम कैदियों के साथ सड़ने पर मजबूर किया जा रहा है. यह गनीमत है कि सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट उदार हैं और लोकतंत्र को बचाने में लगी है. सब से नीचे के पायदान पर बैठे मजिस्ट्रेट मशीनी ढंग से सरकार के मंशे पूरे करने के लिए लाए गए आरोपी को जेल भेज देते हैं. मजिस्ट्रेट अपने विवेक का इस्तेमाल करते नजर नहीं आते. वे सोचते हैं कि विचारक और जेबकतरे में शायद कोई अंतर ही नहीं.

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