जो यह सोच रहे थे कि सोनिया गांधी का युग समाप्त  हो गया है, उन्हें निराशा हो रही होगी कि पश्चिम बंगाल व बिहार में कुछ सीटें जीतने के बाद सोनिया ने भारतीय जनता पार्टी की सरकारें गिराने की हर संभव कोशिशों के बावजूद उत्तराखंड और अरुणाचल में अपनी सरकारें बचा लीं. बिहार, बंगाल और इन 2 पहाड़ी राज्यों में कांगे्रस का अंत लगभग लिखा जा चुका था पर सोनिया गांधी ने हिम्मत नहीं हारी. यही हिम्मत उन्होंने 1997 में दिखाई थी, जब सीताराम केसरी से कांग्रेस अध्यक्ष पद छीना और यही हिम्मत 2004 में भी दिखाई जब लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुकाबला किया. सोनिया ही नहीं, ममता बनर्जी, मायावती, जयललिता भी ऐसी विकट स्थितियों से निकली हैं, बिना किसी खास पुरुष संरक्षण के. जो औरतों को कमजोर समझते हैं उन के लिए ये 4-5 महिला नेता एक सबक हैं कि शक्ति को जैंडर से न जोड़ो, यह व्यक्तित्व का हिस्सा है, यह काफी कुछ गंवा देने के बाद भी हिम्मत न हारना है.

हमारा समाज हमारी औरतों को परतंत्र रहने का पाठ पहले दिन से सिखाता है. यौन रक्षा के नाम पर इस पर हजार बंधन लगा देता है, जो उस के पूरे व्यक्तित्व पर छा जाते हैं. वह अपनेआप में सिकुड़ जाती है, दया की भीख मांगने को मजबूर की जाती है. विफल होना उस का दोष नहीं है पर सजा उसे ही दी जाती है. विवाह न हो तो अपशकुनी मानी जाती है. बच्चे न हों तो पति को नहीं उसे दोषी माना जाता है. ऐसे समय सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, जयललिता, मायावती, हिलेरी क्लिंटन, ऐंजेला मार्केल एक नई ऊर्जा दे रही हैं कि शारीरिक बनावट का व्यक्तित्व से कुछ भी लेनादेना नहीं है. जिन घरों में पत्नी की भी चलती है, वहां अनुशासन रहता है. वहां नए मंसूबे बनते हैं. वहां पतिपत्नी मिल कर जोखिम भरे फैसले ले सकते हैं. विवाह, प्रेम, सैक्स व बच्चों से जुड़े पतिपत्नी एकदूसरे के पूरक हैं, पर केवल तभी जब औरत को हाड़मांस की गुडि़या न समझा जाए.

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