सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक और भ्रामक  निर्णय में कहा है कि इनहाउस जांच कमेटियों में बुलाए गए व्यक्ति को अपने साथ वकील रखने की अनुमति नहीं होनी चाहिए. एक तरह से यह तर्क सही हो सकता है क्योंकि यदि हर तरह की जांच में अदालतों वाला माहौल होना जरूरी हो जाए तो किसी बात की कभी जांच हो ही नहीं सकती.

दफ्तरों में बेईमानी, चोरी, हुक्मउदूली, दुर्व्यवहार के मामले होते रहते हैं और मैनेजर या मालिक सभी संबंधित लोगों को बुला कर पूछताछ करे और फैसला दे, इस में वकील की क्या जरूरत है. अगर इस बात को लिख भी लिया जाए तो भी वकील की जरूरत नहीं होनी चाहिए.

यह मामला, जिस में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया, अलग है. मामले में बैंक ने एक कर्जदार को बुला कर इनहाउस जांच की और ढूंढ़ने की कोशिश की कि कर्जदार ने बैंक से कर्ज ले कर पैसा वापस न करने की जगह कहीं और तो नहीं लगा दिया या उस की हैसियत लौटाने की है या नहीं. यह मामला आंतरिक है ही नहीं. यह कानूनी है और कानून के अनुसार हर व्यक्ति को अपनी सफाई देने का हक है.

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हर व्यक्ति अपनी सफाई सही शब्दों में देने लायक हो, जरूरी नहीं. बोलने की हिम्मत और पूछे गए सवाल का सही शब्दों में उत्तर देना एक कला है. एक वाचाल व्यक्ति सवाल का जवाब सवाल से दे सकता है. एक खामोश सा व्यक्ति सवाल पर जवाब देने लायक शब्द ही नहीं ढूंढ़ पाता.

इस निर्णय के देने का समय भी थोड़ा चौंकाने वाला है. इन्हीं दिनों अपने मुख्य न्यायाधीश पर लगाए गए यौन प्रताड़ना के एक महिला कर्मचारी के आरोपों की जांच सुप्रीम कोर्ट कर चुकी है. इस में 3 कानूनविद जजों ने एक 35 वर्षीया, लगभग गांव की पृष्ठभूमि से आई, महिला को जांच के दौरान सवालों के घेरे में घेरा था. महिला ने मांग की थी कि उसे एक वकील करने का मौका मिलना चाहिए जिसे जांच कमेटी ने ठुकरा दिया और आरोपों को निराधार घोषित कर दिया.

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