मुसलिम इतिहास को मिटाने के चक्कर में हमारे कट्टरवादी न केवल चौराहों पर और धर्म संसदों में अनापशानाप बोलते रहते हैं, वे अदालतों में भी एैरेगैरे तथ्यों को ले कर खड़े रहते है कि कभी न कभी कहीं तो कोई जज उन की सुन लेगा. उत्तर प्रदेश वाराणसी की ज्ञानवापी मसजिद और ताजमहल को ले कर मामले अदालतों में जे जाए गए जिन का कोरा उद्देश्य यह था कि जनता के सामने जो मुद्दे हैं, गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, अराजकता, गंदगी, अस्तव्यस्त शहरी व ग्रामीण जीवन, आंसू बहाते अस्पताल, महंगी होती शिक्षा जैसी बातों को भुला कर बेकार के ङ्क्षहदूमुसलिम विवाद पर कुछ कहा जाता रहे.

इलाहाबाद की लखनऊ पीठ के जजों डीके उपाध्याय व सुभाष विद्यार्थी ने तो पिटिशनर को डांट लगा कर याचिका खारिज कर दी पर ज्ञानवापी सर्वे का काम वाराणसी सिविल कोर्ट ने जारी रखवा दिया.

इन से हासिल क्या होता है, यह सब जानते हैं. यह विवाद खड़े रहें यही सब से बड़ी उपलब्धि है, सैंकड़ों सालों की गुलामी वह भी कुछ सौ लोगों की सेना के हाथों के इतिहास को नकार कर ये लोग आज लोकतंत्र के बल पर लोकतंत्र को नष्ट करने में लगे हुए हैं.

ताजमहल और ज्ञानवापी मसजिदें चाहे तोड़ दिए जाएं, ये याद रहेंगे कि इस देश पर विदेश से आए लोगों ने राज किया, जम कर दिया, बड़ेबड़े शहर बनाए, भवन बनाए और इस देश का विश्वगुरू ज्ञानी चुप बैठा रहा. आज वह बैठेबिठाए अपना रोब झाड़ रहा है. जबकि तब और आज में कोई ज्यादा फर्क नहीं है.

विदेशों में किसी को छींक आती है तो भारत का उद्योग जगत बिस्तर पर पड़ जाता है. भारत चीन से उलझने की हिम्मत नहीं रखता. चीनी एप तो बंद कर दिए पर अरबों का व्यापार चालू है, भारत की प्रति व्यक्ति आय महज 1900 डौलर है जबकि छोटे से स्वीडन की 90,000 डौलर. उस की ङ्क्षचता न थके इन ज्ञानियों को कभी कुतुब दिल्ली है, कभी ताजमहल, कभी वाराणसी की मसजिद कभी कृष्णभूमि.

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