जैसे भक्ति की लहर की सफलता में भारतीय जनता पार्टी के नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल ने अपने बड़बोलेपन से भारत को एक कौर्नर में खड़ा कर दिया, वैसे ही व्लादिमीर पुतिन के बड़बोलेपन और डोमैस्टिक सफलताओं ने उन्हें यूक्रेन पर हमला करने को उकसा दिया. दोनों मामलों में सफलता गरम जलेबी का एक निवाला सी बन गई जिसे निगलना अब मुश्किल हो गया है.

व्लादिमीर पुतिन ने पूरे यूरोप, पैसिफिक देशों, अमेरिका और कनाडा को एकजुट कर दिया और उन के अपने आपसी मतभेद अब मिट गए हैं. स्वीडन व नौर्वे, जो अब तक नाटो के सदस्य नहीं थे, दौड़े चले आए हैं नाटो की शरण में. नौर्थ एटलांटिक ट्रीटी और्गेनाइजेशन कभी इतना मजबूत नहीं था जितना आज है.

यूक्रेन अगर रूस के दांत खट्टे कर पा रहा है तो इसलिए कि पश्चिमी देश लगातार उसे सैनिक सामग्री दे रहे हैं और नए से नए मिसाइल, ड्रोन, मशीनगनें, टैंकभेदी तोपें यूक्रेन पहुंच रही हैं. रूस के गरूर में डूबी जनता और फौज जो सम झती थी कि पुतिन हैं तो सब मुमकिन है, अब परेशान हैं. युवा फौज ने युद्ध देखा नहीं, कोई अनुभव नहीं उसे, सैनिक सामग्री जंग लगी हुई है.

व्लादिमीर पुतिन ने सोचा था कि यूक्रेन को हराना 3 दिन का काम है जबकि जंग होते हुए 150 दिन हो गए. ठीक वैसे, जैसे महाराष्ट्र में सरकार बनाने में भाजपा को पहले भान था कि ढाई दिन लगेंगे पर ढाई साल लग गए और वह भी तब जब मुख्यमंत्री पद शिवसेना घटक के नेता को देना पड़ा, उस नेता को जिस की जमीनी हकीकत किसी को नहीं मालूम.

पुतिन के खिलाफ नाटो और पश्चिमी यूरोप की एकजुटता लोकतंत्र के लिए अच्छी बात है. वरना लगने लगा था कि तुर्की के रजब तैयब एर्दोगान की तरह पश्चिमी यूरोप में कट्टरवादी हावी हो जाएंगे क्योंकि उदार लोगों को मालूम नहीं कि कट्टरपंथी शासन का मतलब क्या है. अमेरिका में आज भी अगर डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति होते तो रूस यूक्रेन पर ही

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