नवंबर दिसंबर के 5 विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की हालत पतली होगी इस का अंदाजा महीनों पहले होने लगा था जब नोटबंदी, पैट्रोल के बढ़ते दामों, जीएसटी के शिकंजों, गौभक्तों के हिंसक कारनामों, औरतों की बढ़ती असुरक्षा और भाजपा की हठधर्मी दिखने लगी थी. सरकार और पार्टी को शासन प्रशासन की नहीं केवल मूर्तियों उद्घाटनों, आरतियों, बाबाओं की कृपा मांगने, अखबारों में बड़े विज्ञापन देने की लगी रहती थी.

जनता को परेशानियां हो रही थीं पर उस की बात घुट रही थी क्योंकि मोदी और शाह की पार्टी ने ऐसा माहौल बना दिया था कि तकलीफों को नजरअंदाज कर के गुणगान की आवाज ही सुनाई दे रही थी. पहले गुजरात और फिर कर्नाटक के चुनावों ने साफ कर दिया था कि केवल हिंदू हिंदू करने से वोट नहीं मिलने वाले पर मोदी शाह और नागपुर को इस के अलावा न कुछ सूझता है न आता है.

फिर भी लग यही रहा था कि पार्टी को कम सीटों पर हर राज्य में सफलता मिल जाएगी और इसलिए भाजपा दंभ और विश्वास में भरी थी और मोदी ने बजाए विकास और आर्थिक मामलों की चर्चा करने अपनी रैलियों का इस्तेमाल जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राहुल गांधी की खिंचाई में किया.

दूसरी तरफ राहुल ने कांग्रेस ने 1905 से क्या किया की चर्चा न के बराबर की और लोगों की तकलीफों की चर्चा ज्यादा की. उन्होंने राफेल विमान के सौदे में हुए घोटाले की बात की जिस की किसी ने सफाई नहीं दी. चौकीदार को खुले शब्दों में उन्होंने चोर कहा पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आजादी से पहले क्या किया या बाद में भारत में हिंदू मुसलिम बैर कैसे बढ़ाया की बात की ही नहीं.

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