गुजरात से हिंदी भाषाई लोगों के भागने की जिम्मेदारी गुजरात सरकार कांग्रेस नेता अल्पेश ठाकोर पर मढ़ कर दोषमुक्त होने की कोशिश कर रही है. एक सत्तारूढ़ पार्टी जो अपनी मनमानी और अपनी पुलिस की ज्यादितियों के लिए 2002 में खूब नाम कमा चुकी है, वह एक अदने से नेता की आड़ में शिकार करना चाह रही है. शिखंडी का पीछे से छिप कर वार करना या पेड़ के पीछे खड़े हो कर मल्लयुद्ध में विरोधी पर तीर चलाना नेताओं ने पौराणिक ग्रंथों से ही सीखा है.

गुजरात की रीढ़ बन चुके हैं हिंदी भाषाई मजदूर. इन्होंने ही पिछले कई दशकों में कम दाम पर ज्यादा काम कर के राज्य के उद्योगों को जिंदा रखा है. गुजरात में 2 सदियों में जो शिक्षा का प्रसार हुआ है, उस का एक असर यह हुआ है कि वहां खेतों में पहले काम करने वाले अब छोटेमोटे व्यापारी बन गए हैं और उन्होंने कारखानों में काम छोड़ दिया है. कारखानों में मेहनत का काम करने वालों को बाहर से बुलाना पड़ा है और उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की भयंकर बेकारी व गरीबी से भाग कर लाखों देश भर में बसे.

इन लोगों ने घर वगैरा तो नए राज्य में बना लिए पर राज्य में घुलमिल न पाए. ये बाहरी ही बने रहे हैं. जाति और भाषा की दीवारें कई दशकों बाद भी नहीं टूटी. ऊपर से गुजरात में कभी आरक्षण विरोधी, कभी मुसलिम विरोधी, कभी अंधभक्ति आंदोलन चलते रहे हैं. इन सब से गुजराती समाज लगातार खेमों में बंटा रहा है.

नरेंद्र मोदी ने 12 साल में गुजरात को बदलने की कोशिश नहीं की. वह भेदभाव का लाभ उठाते रहे. गुजरात में तरहतरह के मठ हैं और हर मठ अपनी जाति का है और न सरकार न नेता इन लोगों को एक साथ खड़ा कर पाई. हिंदू धर्म के नाम पर चाह इन की दरी एक ही हो पर ऊपर बैठा हर गुट अलग रहा, एकदूसरे का दुश्मन बना रहा.

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