बाजार का सिद्धांत है कि हर चीज का दाम मांग व पूर्ति पर तय होता है. लागत के अतिरिक्त क्या मिल सकता है, यह उस काम या सेवा की उपयोगिता पर ही नहीं, उस की मांग पर भी निर्भर करता है. अडानी के शेयर सालभर में आसमान छूने लगे थे क्योंकि गौतम अडानी के बारे में यह भरोसा था कि वे जिस को छुएंगे वह फलेगाफूलेगा ही. आखिर, उन्होंने एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री को हाथ लगाया तो वह शक्तिशाली प्रधानमंत्री बन गया न.
अडानी समूह की कंपनियां रोजमर्रा की आम आदमियों की चीजें कम बनाती हैं. वे पोर्ट, एयरपोर्ट, सड़कें, कोयला खानें, बिजलीघर, गैस बनाती हैं जो आम लोगों को दिखती नहीं हैं और उन में, आमतौर पर, कंपीटिशन कम होता है. अडानी की कंपनियों को हर तरह के ठेके बैठेबिठाए मिल रहे थे, इसलिए उन के शेयरों के भाव बढ़ रहे थे. शेयर खरीद कर लोग लखपति से करोड़पति हो रहे थे. स्वयं अडानी परिवार इसी से करोड़पति से खरबपति बन रहा था.
अब जब एक छोटी सी रिसर्च रिपोर्ट, जिस में कुछ नया नहीं कहा गया है बल्कि जो जानकारी बिखरी पड़ी थी उसे मात्र एकत्र किया गया है, ने तहलका मचा दिया और अडानी परिवार के कागजी शेयर तुर्की व सीरिया के भूकंपों में गिरे मकानों की तरह गिर पड़े.
नरेंद्र मोदी, गौतम अडानी, अडानी की कंपनियों ने जिन से कर्ज लिया उन की तो छोडि़ए असली चिंता तो उन की करें जो काम अडानी अपने अधिकार में ले चुके हैं. एनडीटीवी चैनल को ही लें, जिसे काफी लोग देखते थे और दूसरे चैनलों से उस पर ज्यादा विश्वास करते थे, अब उस का होने वाला नुकसान क्या अडानी ग्रुप भर पाएगा? उस में काम कर रहे कुछ तो छोड़ गए, बाकियों का क्या होगा?
समुद्री पोर्ट, एयरपोर्ट, कोयला खानें, बिजलीघर बनाने में बरसों लगते हैं और बरसों आमदनी नहीं होती, सिर्फ खर्च होता है. यदि अडानी समूह को बैंक अब उस के शेयरों के बदले कर्ज नहीं देंगे तो क्या होगा. इन में से ज्यादातर उन जमीनों पर बन रहे हैं जिन की मिलकीयत मोटेतौर पर सरकारों ने आज भी अपने हाथ में रख रखी है. इन से पैदा होने वाली सेवाएं जनता को मिलेंगी या नहीं? इन पर अब तक जो खर्च हो चुका है, उस का क्या होगा?
सरकारी कपड़ा मिलों की तरह ये खंडहर तो नहीं बन जाएंगे. मिसमैनेज हुए विजय माल्या, नीरव मोदी, मोदीनगर वाले मोदी, जयपुरिया जैसों के कारखानों की तरह ये भी रूसी आणविक बिजलीघर चैर्नोबिल की तरह तो नहीं बन जाएंगे जो जनता का पैसा बंद होने के बाद में खाते रहेंगे.
देशभर में ऐसे सैकड़ों कारखाने हैं जिन में लगी मशीनें दोचार साल में देखरेख के अभाव में नष्ट हो गईं. उन पर लगी पूंजी बेकार गई. जिन लोगों ने उन कंपनियों के शेयर खरीद रखे थे वे कागज के टुकड़े बन कर रह गए.
अडानियों का क्या होगा, यह चिंता की क्या बात है. हो सकता है वे इस आर्थिक संकट से उबर जाएं पर जो जख्म इन्होंने लाखों अपने शेयरधारकों, कर्मचारियों, उन की सेवाएं या वस्तुओं का व्यापार करने वालों को दिए हैं, उन का तो रोना भी कोई नहीं रोएगा.
जब भी कोई कच्चा बना मकान गिरता है तो नुकसान सिर्फ मालिक को नहीं होता, उस के आसपास की पूरी बस्ती को होता है. अडानी समूह किस को कितना नुकसान पहुंचाएगा, अभी पता नहीं पर जो भी अडानी का कुछ लेदे रहे थे, उन्हें हर रोज खबरदार रहना होगा और कयामत सा डर का सामना करने को तैयार रहना होगा.