बीती 18 मई को मुंबई के किंग एडवर्ड मैमोरियल (केईएम) अस्पताल में अरुणा शानबाग की हुई मौत पर उस की पत्रकार मित्र और हमदर्द पिंकी विराणी ने दोटूक कहा था कि अरुणा की मौत तो 27 नवंबर, 1973 को ही हो गई थी जिस रात दुराचार के बाद वह कोमा में चली गई थी. आज तो अरुणा की कानूनी मौत हुई है. 42 साल के असीम दर्द के बाद उसे सुकून की नींद आई है. अरुणा शानबाग इसी अस्पताल में नर्स थी. हादसे के दिन अस्पताल के ही वार्डबौय सोहनलाल ने उस से दुष्कर्म करने की कोशिश की थी. अरुणा को काबू करने के लिए सोहनलाल ने कुत्ता बांधने वाली चेन से उस का गला दबा दिया था. इस से उस के मस्तिष्क में खून की सप्लाई रुक गई और वह कोमा में चली गई थी. 7 साल की सजा काट कर सोहनलाल तो जेल से छूट गया लेकिन अरुणा 42 साल कोमा में रही. उस के परिजनों ने शुरूशुरू में उस में दिलचस्पी ली, फिर धीरेधीरे आनाजाना भी बंद कर दिया. हादसे के पहले अरुणा की सगाई एक डाक्टर संदीप सरदेसाई से तय हो चुकी थी.

संदीप ने 4 साल अरुणा के होश में आने का इंतजार किया, नाउम्मीद हो कर उस ने दूसरी महिला से शादी कर ली और विदेश में बस गया. तब से ले कर मौत के दिन तक केईएम अस्पताल का स्टाफ अरुणा की देखभाल करता रहा. एक तरह से सारे कर्मचारी उसे अस्पताल परिवार का हिस्सा मानते हुए उस की सेवा करते रहे. इसी के फलस्वरूप वह लंबे समय तक जिंदा रही. ये और इस तरह की कई बातें अरुणा की मौत के बाद उजागर हुईं जो वाकई किसी दिलचस्प और रोमांचक उपन्यास की तरह थीं. आम लोगों ने अरुणा से सहानुभूति रखी. वहीं, बुद्धिजीवी वर्ग में एक दफा फिर इच्छामृत्यु पर खासी बहस छिड़ गई कि आखिरकार इच्छामृत्यु को कानूनी दरजा देने में हर्ज क्या है? 2 खेमों में बंटे बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने हर्ज भी गिना दिए कि वे क्याक्या और कैसेकैसे हैं तो सहज लगा कि इच्छामृत्यु के मुद्दे पर किसी कानून की जरूरत ही नहीं है. वजह, यह परिवार और समाज से जुड़ा संवेदनशील मामला है जिस के फायदे कम, नुकसान ज्यादा हैं. और अगर कानून बना तो उस का दुरुपयोग ज्यादा होगा. दुरुपयोग की आशंका जता रहे लोगों के पास दरअसल अनुभव ज्यादा हैं कि भारतवासी कानूनों के बेजा इस्तेमाल करने के कैसे विशेषज्ञ हो गए हैं चाहे वह फिर दहेज का कानून हो, घरेलू हिंसा का हो या फिर हरिजन ऐक्ट. इन का इस्तेमाल न्याय के लिए कम, व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए ज्यादा होता है और इस में स्वाभाविक है कि दूसरे बेकुसूर पक्ष को परेशानी उठानी पड़ती है.

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