पुरानी डायरी में एक नाम वीरेंद्र सिंह देख कर ढाई साल पहले की एक ठंडी रात याद आ गई. बात दिसंबर 2014 की है. मैं एक कार्यक्रम में शामिल होने करनाल (हरियाणा) गई थी. बीकानेर से जींद तक अवधअसम ट्रेन से मेरा आरक्षण था. जाते समय मेरा भाई मेरे साथ था, इसलिए मैं सफर में निश्ंिचत थी. मगर वापसी मुझे अकेले ही करनी थी.
मुझे वापसी में यही ट्रेन जींद से पकड़नी थी. ट्रेन का समय था शाम लगभग पौने 7 बजे. मैं सही समय पर स्टेशन पहुंच गई. वहां पता चला कि कोहरे के कारण ट्रेन 3 घंटे लेट है. मेरे पास वेटिंगरूम में इंतजार करने के अलावा चारा नहीं था.
वहां मेरे अलावा और कोई नहीं था. अनजान जगह होने के कारण मैं डर रही थी. उधर बीकानेर में बैठे मेरे घर वाले मेरे लिए परेशान हो रहे थे. वे बारबार ट्रेन की लोकेशन पता कर के मुझे बता रहे थे. इस बातचीत में मेरे फोन की बैटरी कम होती जा रही थी.
मैं ने वेटिंगरूम में देखा तो कोई भी चार्जिंग पौइंट काम नहीं कर रहा था. मैं ने आखिरी बार घर पर बात कर के बताया कि अब मेरा फोन स्विचऔफ हो रहा है, ट्रेन में चार्ज कर के बात करूंगी और इसी समय मेरा सब से संपर्क टूट गया.
मुझे भूख भी लग रही थी और ठंड भी. मैं हिम्मत कर के प्लेटफौर्म पर आई. सबकुछ सुनसान था. मैं ने पूछताछ खिड़की पर पता किया तो मालूम हुआ कि अब ट्रेन 7 घंटे देरी से चल रही है.
रात के 10 बज रहे थे. मैं घूमते हुए नाइट ड्यूटी पर बैठे सैक्शन इंजीनियर वीरेंद्रजी के रूम की तरफ निकल आई. वहां जा कर मैं ने अपना परिचय दिया और मदद मांगी. उन्होंने न केवल मेरा मोबाइल चार्ज करवाया बल्कि रूम का हीटर भी मेरी तरफ घुमा दिया. पहले मुझे चाय पिलाई और फिर मेरे लिए कैंटीन से खाना मंगवाया. फोन चार्ज होते ही मैं ने बीकानेर में अपने घर वालों से बात कर के सारी जानकारी दी तो उन की जान में जान आई.