सरित प्रवाह, अक्तूबर (प्रथम) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी’ अति महत्त्वपूर्ण है. आप ने बिलकुल सत्य लिखा है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करवा कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वही किया है जो हिंदू राजाओं के साथ उन के ब्राह्मण सलाहकार किया करते थे.

इतिहास में दर्ज है कि ज्यादातर राजा ब्राह्मणों की सिफारिश पर बनाए जाते थे. कुछ ही युद्धों में जीत कर या जनता की इच्छा पर राजा बन पाते थे. नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की भी पसंद हैं, यह औपचारिकता तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने नहीं निभाने दी.

नरेंद्र मोदी ने अब तक केंद्र में कभी काम नहीं किया. वे राज्य के मुख्यमंत्री चाहे हों पर वहां उन्होंने कोई क्रांतिकारी काम नहीं किया. उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भरोसा है तो इसलिए कि उन्होंने वर्ष 2002 में दिखा दिया था कि वे हिंदुओं का नाजायज पक्ष कैसे ले सकते हैं और राजनीतिक व कानूनी वार झेल सकते हैं. प्रधानमंत्री का पद धर्मनिरपेक्ष ही होना देश के हित में है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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हिंदी का प्राध्यापक होने के कारण आप की पत्रिका मैं नियमित पढ़ता हूं. यह एक अत्यंत आदर्श साहित्यिक पत्रिका है जिस में पुरोगामी विचारों को स्थान मिलता है. लेकिन अक्तूबर (प्रथम) अंक में ‘प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी’ शीर्षक के तहत छपे आप के संपादकीय विचार पढ़ कर बड़ा दुख हुआ, जिस में आप ने भाजपा व नरेंद्र मोदी पर अत्यंत प्रतिगामी टिप्पणी कर अकारण ब्राह्मण व मराठों के इतिहास को जातीय रंग दिया है. संभाजी राजे और राजाराम के सत्तासंघर्ष के कारण व छत्रपति शिवाजी महाराज के मृत्योपरांत मराठों में 2 गुटों के संघर्ष के परिणामस्वरूप पेशवा का उदय हुआ.

वैसे भी, सत्ता की राजनीति में स्वार्थ के आगे जाति गौण होती है. इतिहास में सभी जातियों ने राजनीति कर सत्ता सुख प्राप्त किया है. आज भी भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न जातियां सत्ता का सुख प्राप्त कर रही हैं और वर्तमान संदर्भ में किसी भी जाति पर टिप्पणी करना अशोभनीय है.

दूसरी बात, पेशवाओं ने अपने शौर्य के कारण उत्तर भारत में मराठों के राज्य का विस्तार किया. उन की हार के पीछे बहुत गहरा इतिहास है. आप ने आज के ब्राह्मणों को नवब्राह्मण कह कर अकारण कटुता को आमंत्रित किया है. आदर्श पत्रकारिता जाति पर नहीं, मात्र राष्ट्रहित पर आधारित होनी चाहिए.

डा. टी पी देशपांडे, नांदेड़ (महाराष्ट्र)

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संपादकीय टिप्पणियां ‘धर्म और दंगा’, ‘कानून और अदालत’ व ‘प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी’ समाज को यह संदेश देती हैं कि किस तरह हमारे देश के कर्णधार धर्म व जाति के नाम पर फूट डालते हैं और लोगों के दिलों में नफरत का जहर घोल कर दंगे करवाते हैं. क्या कभी किसी ने यह जाना या सुना है कि इन दंगों में किसी राजनीतिज्ञ की जान गई है या उस की हत्या की गई है.

इसी अंक में प्रकाशित लेख ‘आसाराम: संत के चोले में ऐयाशी’ लेख उन धर्मभीरू लोगों के लिए एक करारा थप्पड़ है जो आंखें मूंद कर समाज को कलंकित करने वाले तथाकथित ‘बाबाओं’ के पीछे चल रहे हैं. कितनी बड़ी विडंबना है कि आसाराम के भक्त यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आसाराम ने कोई अपराध किया है. वे धर्म के नाम पर एक धब्बा हैं.

सुनंदा गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

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बाबाओं के फेर में

अक्तूबर (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘आसाराम : संत के चोले में ऐयाशी’ में आसाराम का कच्चा चिट्ठा खोला गया है. तस्करी, वेश्यावृत्ति व अपराध से बड़ा धर्म का कारोबार है. रात 11 बजे के बाद लाउडस्पीकर बजाना वर्जित है. फिर भी सभी धर्मस्थल शोर मचाते रहते हैं. धर्मस्थल कानून से ऊपर नहीं हैं.

रजत कुमार, बरेली (उ.प्र.)

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लेख ‘आसाराम : संत के चोले में ऐयाशी’ पढ़ा. इस से यह निष्कर्ष निकला कि हमारे देश में राजनीतिक, सांस्कृतिक, नैतिक पतन के साथ धार्मिक विस्खलन भी तीव्र गति से हो रहा है. ऐसे ही कारणों की बदौलत हम हरेक क्षेत्र में पिछड़े हैं, अंदर से खोखले हो रहे हैं, केवल सरकारी आंकड़ों में आगे और स्वस्थ हैं.

धार्मिक प्रतिष्ठानों, पाखंडी खेलों में संलग्न पंडितों व मठाधीशों ने हमारे देश की धार्मिक प्रतिष्ठा को नष्ट करने में कुछ भी नहीं छोड़ा है. आसाराम की हैवानियत के चलते सच्चे धार्मिक गुरुओं की महिमा कम होने का डर है.

आश्चर्य की बात यह है कि आजकल टीवी चैनलों में धार्मिक प्रवचनों का प्रचारप्रसार ज्यादा होता है, लेकिन बलात्कार के घिनौने और अमानुषिक हादसे हमारे देश में लगातार बढ़ रहे हैं. महिलाओं पर बर्बर अत्याचार होता है जबकि दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों की पूजाअर्चना यहीं ज्यादा होती है.

हैरानी यह भी होती है कि स्वयं घोषित देवों की संख्या भी बढ़ रही है और अंधविश्वासी, अशिक्षित, मानसिक कमजोर लोग उन के दरबार भी लगाए रहते हैं. अधिकतर देवस्थलों के संरक्षक राजनीतिक नेतागण होते हैं जिस के कारण संतों को सत्ता सहायता भी उपलब्ध होती है.

आसाराम के आश्रम में जिस तरीके से आसाराम और उन के शिष्यों ने किशोरी के साथ घंटों यौन उत्पीड़न का नंगा नाच किया, संपूर्ण विवरण पढ़ने के बाद लगा, ऐसे लोगों को मौत की सजा देनी चाहिए. पापपुण्य का हिसाब दिखा कर ज्यादातर लड़कियों और औरतों को गुमराह कर के ऐयाशी का शिकार बनाया जाता है. लड़की अगर नहीं बताती तो आसाराम लोगों की नजर में बदनाम नहीं होते, यथावत राम ही रहते.

सिलीगुड़ी में काली मंदिर के पीछे के कमरे में ब्लू फिल्म दिखाने की व्यवस्था करने वाले पुजारी जब पकड़े गए, लोगों के कान खुल गए. एक नवग्रह मंदिर के परिसर से रोज सुबह नकली दारू लोड कर के दार्जिलिंग ले जाने का धंधा चलता था. मंदिर के एकमात्र मालिक पंडित से शिकायत की गई तो वे मौन हो गए क्योंकि उन्हें शेयर मिलता था. श्वेत वस्त्रधारी, ललाट पर पीले चंदन का लेप लगाने वाला पंडित तब नाराज हो गया जब मंदिर परिसर से नकली दारू के लोड करने की व्यवस्था पर रोक लगाई गई.

सो, इस तरह के पंडितों की देखरेख में धार्मिक स्थलों का संचालन होता है और वहां भक्तजन भी जुट जाते हैं तो आसाराम जैसे रावणों का जन्म क्यों नहीं होगा?

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

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आसाराम के बारे में ‘आसाराम : संत के चोले में ऐयाशी’ लेख पढ़ कर कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा. जो हुआ वह तो होना ही था, बल्कि वर्षों से होता आया है, प्रकाश में अब आया है.

आश्चर्य यह है कि आस्थावान लोगों की आस्था टूटे नहीं टूट रही है. विश्वास और अंधविश्वास के बीच का फर्क कब समझ में आएगा लोगों को? नित्यानंद, निर्मल बाबा और आसाराम सरीखे कलियुगी भगवान से समाज को कब छुटकारा मिलेगा?

अफसोस यह है कि भगवान के खोल में छिपे इन राक्षसों के लिए जनता स्वयं ही उन का ग्रास बनने को तैयार है, विशेषकर महिलाएं, जो स्त्री हो कर भी एक स्त्री की पीड़ा नहीं समझतीं. अशिक्षित ही नहीं शिक्षित लोग भी अपनी अंधभक्ति के खिलाफ कोई तर्क सुनना पसंद नहीं करते. कई सैलिब्रिटी, जो जनता के आदर्श हैं, वे भी इन तथाकथित बाबाओं के चरणों में शीश नवाते हैं.

घर में काम करने वाली नौकरानी तनखा बढ़ाने को कहे तो उसे निकम्मा कह कर निकाल दिया जाता है, जरूरतमंद दोस्त या रिश्तेदार कुछ रुपए मांगे तो आप बहाने खोजते हैं, सब्जी वाले से 5-10 रुपयों के लिए बहस कर लेते हैं मगर इन बाबाओं के लिए लाखोंलाख रुपया दान करने में गर्व महसूस करते हैं.

हम यह क्यों नहीं समझते कि हमारे ही बीच में पैदा होने वाला मनुष्य, जो दैत्यों का सा आचरण करता है, वह भला भगवान कैसे हो सकता है. अगर सही अर्थों में ये महात्मा हैं तो हमारे बीच क्यों रह रहे हैं? राजसी ठाटबाट और ऐशोआराम त्याग कर हिमालय की कंदराओं में या सतपुड़ा के जंगलों में जा कर तपस्या क्यों नहीं करते?

पूजना ही है तो उन किसानों को पूजो जिन के परिश्रम के कारण ही हमारे घरों में अनाज आता है. सीमा पर मरमिटने वाले जवान पूजनीय हैं जिन के कारण हम अपने घरों में चैन की नींद सोते हैं. माला जपो, उन देशभक्तों के नाम की, जिन की दी हुई आजाद आबोहवा में हम सांस ले रहे हैं. धन्यवाद करो मातापिता का जिन्होंने हमें यह दुनिया दिखलाई. दान करो प्रकृति को जो हर पल हमें जिंदगी दे रही है.

दरअसल, हमारी जागरूकता ही इन बाबाओं का सिंहासन हिला सकती है और हमारी धर्मनिरपेक्षता ही इन की जड़ें उखाड़ सकती है.

आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)

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प्रधानमंत्री की योग्यता

अक्तूबर (प्रथम) अंक का अग्रलेख ‘नरेंद्र मोदी ?: विवादों के घेरे में भाजपा के प्रधानमंत्री’ पढ़ा. लेखक ने कई सवाल भी उठाए, जैसे मोदी विपक्ष से ही नहीं, अपनों से भी घिरे हैं, मोदी कौन सा चमत्कार दिखाएंगे, उत्तराखंड की पहाडि़यों में वे हैलिकौप्टर से क्यों गए थे, वे अपना कद राष्ट्रीय नेतृत्व या पीएम योग्य किस आधार पर मान रहे हैं, उन्हें न तो अंगरेजी ही आती है और न ही सब को साथ ले कर चलने की योग्यता ही उन में है, आदि.

आज तक हमारे देश में बने प्रधानमंत्रियों में से कितने ‘अभिमन्यु’ थे, जो मां के पेट से ही सभी कुछ सीख कर आए थे? क्या ‘आसमान’ से अवतरित हुए ‘युवा’ प्रधानमंत्री ने चमत्कार कर दिखाया था या फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी देवेगौड़ा, जिन्हें देश की राज्यभाषा हिंदी तक नहीं आती थी और जिन्हें राज्य से एकदम केंद्र में ले जा कर पीएम की कुरसी पर बैठा दिया गया था, ने क्या कोई चमत्कार कर दिखाया था?

देश में आज 10-12 महत्त्वाकांक्षी राजनेता ऐसे ही हैं. जो तीसरेचौथे मोरचे के नाम पर पीएम बन जाने का सपना संजोए बैठे या प्रयत्नशील हैं. मगर, इन में से किसी एक के भी बारे में क्या कोई भी बता सकता है कि वह सर्वमान्य, चमत्कारिक या फिर देश चलाने की सारी योग्यताएं अपने में समेटे हुए हैं.

रही बात सब को साथ ले कर चलने की, तो सुनिए, ये कहावतें हमारे देश में यों ही प्रचलित नहीं हैं कि ‘राजनीति में कोई किसी का न ही स्थायी दोस्त है न ही दुश्मन और न ही कोई अछूत.’ और ये सभी तथाकथित जननायक जब राजनीति ‘स्वहित’ की ही करते हों तो फिर वे दूर रहेंगे भी कब तक. पहाड़ों पर पैदल जाने की बात कर लेखक ने अपनी बौद्धिकता पर ही प्रश्नचिह्न लगवाया है, क्योंकि उन्होंने यह नहीं बताया कि वहां पैदल गया ही कौन था, जो मोदी भी जाते.

टीसीडी गाडेगावलिया, करोल बाग (न.दि.)

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भेड़ की खाल में भेडि़या

आसाराम की हैवानियत की पड़ताल करती रिपोर्ट ‘आसाराम : संत के चोले में ऐयाशी’ पढ़ी. आसाराम जो कुछ भी धर्म के नाम पर कर रहे थे, आज दुनिया के सामने है. इन को क्या सजा होगी, कब होगी, होगी भी कि नहीं या इन के हर महकमे में बैठे इन के अंधविश्वासी भक्त इन को बचा ले जाएंगे, वक्त ही बताएगा. जब से इन को पकड़ा गया है, इन के भक्तों की पूरी कोशिश है कि उन्हें किसी भी तरीके से बचा लेना चाहिए. हैरानी की बात तो तब लगती है जब राम जेठमलानी जैसे विख्यात लोग भी उन्हें जमानत दिलवाने में लगे हैं.

पीडि़ता लड़की और उस के मांबाप जिन्होंने इतना सब सह कर भी जिंदादिली से काम लिया है, बधाई के पात्र हैं. अपने भीतर छिपी पीड़ा को एक दुखी बाप के लिए दुनिया के सामने लाना आसान बात नहीं है. यह तो देशवासियों के लिए ‘आई ओपनर’ है.

मैं समझता हूं कि इस से लोग, खासतौर पर महिलाएं, सबक लेंगी. कसम खाएंगी कि वे कभी भी ऐसे गुरुओं के चक्कर में नहीं पड़ेंगी.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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