सरित प्रवाह, अक्तूबर (प्रथम) 2014

‘किस काम का ऐसा खाता’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय पढ़ा. यह प्रधानमंत्री जन धन योजना पर एक सटीक टिप्पणी है. इस योजना का कोई भी प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ समाज के किसी भी तबके को होने वाला नहीं है. लगता है इस का उद्देश्य जनता का ध्यान बेकाबू महंगाई, लचर कानून व्यवस्था, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार, देश की सीमाओं पर लगातार हो रहे अतिक्रमण व अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों से हटाना है. सरकार 5 हफ्तों में 5 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले जाने को अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश कर के अपनी पीठ थपथपा रही है. भाजपा के कार्यकर्ता लोगों को खाली सपने बेच रहे हैं.

हमारे घर में झाड़ूपोंछा करने वाली प्रौढ़ महिला का बैंक खाता लोगों ने यह कह कर खुलवा दिया है कि कुछ समय के बाद सरकार उस के खाते में 1 लाख रुपए डाल देगी. उस ने मुझे अपने बैंक के कागज दिखाते हुए पूछा, ‘बाबूजी, मुझे 1 लाख रुपए कब तक मिल जाएंगे ताकि मैं अपनी बेटी की शादी कर सकूं?’ मुझे उस के भोलेपन पर तरस आया. उसे कैसे बताता कि 1 लाख रुपए की बीमा की रकम उस के परिवार को उस के मरने पर मिलने वाली है, जीतेजी नहीं. उस के लिए भी, बीमा कंपनी के पेचीदा नियमों के जाल को पार करना होगा.

आप की यह आशंका भी निर्मूल नहीं है कि बैंकों की नौकरशाही, कर्जा मंजूर करने और उस की वसूली में अनपढ़ व गरीब खातेदारों के भोलेपन का भी जम कर फायदा उठाएगी. बैंकों की कार्यप्रणाली पढ़ेलिखों को भी आसानी से समझ में नहीं आती है तो बेचारे अर्धशिक्षित लोग चालाक बैंककर्मियों से कैसे निबटेंगे? जिस योजना की शुरुआत ही बीमा के 1 लाख रुपए की भ्रांति से हुई हो उस की सफलता संदेहास्पद है. पिछले कुछ समय से चालू कर्मठ महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूहों की योजना काफी हद तक अच्छे परिणाम दे रही है. अच्छा होगा कि सरकार उसे ही और आकर्षक बना कर पेश करे.

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