सरित प्रवाह, जुलाई (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘नए दलदल में फंसता समाज’ में आप ने देश, समाज व जनता की उस रग पर हाथ रखा है जिस से उठती, निकलती पीड़ा को न तो हमारे प्रशासक अनुभव कर पाते हैं और न ही हमारे रणनीतिकार, कि उन की नीतियों के दुष्परिणाम भी हो सकते हैं. कारण, बापू के इन आहतपूर्ण शब्दों में समाहित है, ‘जाके पांव न फटे बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई.’

मेरा यह लिखने या मानने का मतलब यह कतई नहीं है कि बलात्कार या बलात्कारियों या फिर महिलाओं से छेड़छाड़ करने या उन का शारीरिक शोषण करने वालों के विरुद्ध कोई कानून नहीं बनाया जाना चाहिए बल्कि यह है कि ऐसे कानून बनने चाहिए और वे न केवल सख्त होने चाहिए, बल्कि सख्ती व ईमानदारी से लागू भी किए जाने चाहिए.

वहीं, इस बात का भी विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि 498ए (दहेज विरोधी) सरीखे कानून की तरह ऐसे कानूनों का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए. सोने पर सुहागा तो तब माना जाएगा जब महिलाओं की सुरक्षार्थ बने कानूनों का दुरुपयोग करने वालों को भी कालकोठरियों का रास्ता दिखाया जाए, ताकि किसी निर्दोष का अनावश्यक जीवन बरबाद न हो सके.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘गुप्त सूचनाएं और लोकतंत्र’ पढ़ी. वास्तव में आप ने इस टिप्पणी में एक नई बात बताई जो काफी प्रशंसनीय है.

लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार कुछ भी छिपा कर न करे. शत्रुओं की बातें जानने के लिए की जा रही जासूसी भी इतनी गुप्त न हो कि उन का दुरुपयोग किया जाने लगे.

तानाशाह देश पहले बोलने, सोचने व कुछ करने की स्वतंत्रता पर रोक लगाते हैं, फिर वे अपना राज बनाए रखने के लिए विरोधियों की गतिविधियों पर नजर रखना शुरू कर देते हैं. अगर लोकतंत्र में भी यही हुआ तो फिर कैसा लोकतंत्र?

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