जब बहस छिड़ती है कि पुरुषों को घर के कामों में हाथ बंटाना चाहिए या नहीं, तो मेरे मानसपटल पर मेरे पापा स्वत: ही छा जाते हैं.
मेरे पापा मेरी मां के हर छोटेबड़े कामों में हाथ बंटाते थे. वे औफिस जाने से पहले सब्जियों को इतनी बारीकी और सलीके से काटते थे कि देखने वाले प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाते थे. अभी भी जब लोग मुझ से पूछते हैं, ‘‘इतनी बढि़या सब्जी काटनी किस से सीखी?’’ तो मेरा जवाब होता है, ‘‘पापा से.’’
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– सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)
मेरे पिताजी मेरी सब से छोटी बहन को ले कर स्कूल में उसे दाखिल करवाने गए. उन दिनों हम सब भाईबहन एक ही स्कूल ‘लेडी इरविन हाईस्कूल’, ‘शिमला’ में पढ़ा करते थे. बहन का दाखिला नर्सरी क्लास में करवाया गया. 2 दिनों तक तो वह खुश हो कर स्कूल जाती रही लेकिन तीसरे दिन उस ने स्कूल जाने से एकदम इनकार कर दिया. मां के बहुत पूछने पर बोली, ‘‘मिस से मुझे डर लगता है.’’
पिताजी ने अगले दिन उस का हाथ पकड़ा और चल दिए स्कूल की ओर उसे छोड़ने. कक्षा में प्रवेश करते ही सामने बैठी अध्यापिका पर उन की नजर गई. मिस गहरी लाल लिपस्टिक में थीं और टांग पर टांग रखे कुरसी में धंसी बैठी थीं. प्रकृति ने दिल खोल कर उन्हें सेहत भी दी थी. वे डर के मारे उलटे पांव कक्षा से वापस लौट आए और सीधे पिं्रसिपल के औफिस में जा पहुंचे. प्रिंसिपल से बोले, ‘‘आप ने छोटेछोटे बच्चों के लिए नर्सरी कक्षा में किस तरह की अध्यापिका रखी हुई है?’’
पिं्रसिपल आश्चर्यचकित हो उन की ओर देख कर पूछने लगीं, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
पिताजी बोले, ‘‘उन्हें देख कर तो मैं ही डर गया. भला, बच्चे नहीं डरेंगे?’’ प्रिंसिपल खूब हंसीं और उसी दिन अध्यापिका को बदल दिया गया.
– मंजू कश्यप, चंडीगढ़ (यू.टी.)
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मुझे बचपन से क्रिकेट खेलने का शौक था, उस के कारण मेरा काफी समय क्रिकेट खेलने में निकल जाता. पढ़ाई के लिए वक्त नहीं मिलता था. एक दिन शाम को क्रिकेट खेल कर मैं घर आया तो पापा ने मुझे सख्ती से समझाया कि वक्त बरबाद करने के लिए नहीं, जिंदगी संवारने के लिए होता है. अगर क्रिकेट खेलना चाहते हो तो साथ में अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान दो.
मैं ने तय कर लिया कि आगे एकएक सैकंड का सदुपयोग करूंगा. संघर्ष के दिनों में उन की हौसलाअफजाई ने मेरी हिम्मत टूटने नहीं दी. आज मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के टाटा कंपनी में कार्यरत हूं. साथ ही, क्रिकेट की अनेक गतिविधियों में भी मैं आगे रहता हूं.
– अंकुर