मेरे पापा एक डाक्टर थे. पापा जब भी पेशेंट देखते, उन में पूरी तरह से खो जाते. मरीज का दुख सुन कर उन्हें लगता यह मेरी ही तकलीफ है. बिना किसी खास जांच के बीमारी पता करते थे. उचित दवा उसी समय दे कर ऐसी तसल्ली देते कि आधी बीमारी तो वैसे ही भूल जाते थे लोग. फीस भी बहुत ही कम, नहीं के बराबर और जो कोई कह देता कि मैं गरीब हूं, उस से वे कहते, ‘जब हो, तब दे जाना.’ साथ ही यह भी कहते कि देना या न देना, परंतु अपना खयाल रखना. हम 3 बहनें हैं. पापा हमेशा कहते, जब कमा कर मेरे हाथ में रखोगी, तभी शादी की सोचना. किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना, अपने पैरों पर खड़े होना. आज दोनों छोटी बहनें इंजीनियर और मैं डाक्टर. हम तीनों अपनेअपने घर में खुश हैं. पापा की दी हुई सीख, जब भी याद आती है, आंखें नम हो जाती हैं.

डा. बीना, इंदौर (म.प्र.)

*

मैं दूसरी कक्षा में पढ़ती थी. उस समय मनोरंजन के नाम पर सिर्फ फिल्म और रेडियो हुआ करते थे. व्यस्तता के कारण मेरे बाऊजी फिल्में नहीं देखते थे. एक दिन सुबह जब आंखें खुलीं तो सुना अम्मा, बाबूजी फिल्म देखने जाने को कह रही थीं, फिल्म थी ‘आशीर्वाद’. अम्मां, बूआ और घर वाले पहले ही यह फिल्म देख चुके थे. बचे थे तो सिर्फ मैं और बाऊजी. मुझे याद है अम्मा की काफी जिद करने पर बाऊजी फिल्म देखने को तैयार हुए और मैं बाऊजी की उंगली पकड़ कर फिल्म देखने गई. मुझे गर्व हो रहा था कि बाऊजी के साथ फिल्म देखने सिर्फ मैं आई हूं और कोई भाईबहन नहीं. फिल्म बापबेटी के रिश्ते पर आधारित थी और उस कम उम्र में भी मैं फिल्म देख कर इतनी भावुक हो गई कि कहीं कोई मेरे बाऊजी को हम से अलग न कर दे. भावुकतावश मैं ने बाऊजी का हाथ जोरों से पकड़ लिया. शायद, बाऊजी मेरी भावनाओं को समझ गए थे और बड़े प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेर दिया. तो ऐसे थे मेरे बाऊजी.   

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...