बात मेरे जन्म के समय की है. दूसरी बार बेटी के जन्म पर घर के बड़ेबूढ़ों के चेहरे लटक गए थे. कई तरह की टिप्पणियां की जा रही थीं. ‘फिर से बेटी आ गई, बाप के कंधों पर दहेज का बोझ बढ़ गया.’ और भी न जाने क्याक्या. मेरे बाबूजी कमरे में गए और अपनी दोनाली बंदूक ले आए. वे पुलिस में दारोगा थे. आंगन में आ कर हवा में 2 गोलियां दागीं और चिल्ला कर अपने बुजुर्गों से कहा, ‘‘मेरी बेटी है, आप सब के सिर में दर्द क्यों हो रहा है? मैं तो खुश हूं कि पहले एक ही लक्ष्मी थी, अब 2-2 हो गईं. अब किसी ने भी मेरी बेटी के लिए अपमानजनक शब्द मुंह से निकाला तो मैं बरदाश्त नहीं करूंगा.’’ सब की बोलती बंद हो गई. बरसों बाद अपनी बूआ से इस घटना के बारे में सुन कर मैं रो पड़ी थी. पापा के कहे गए एकएक शब्द मेरे हृदय में आज भी अंकित हैं. ऐसे थे मेरे बाबूजी. उन्होंने कभी भी हम बहनों को बोझ नहीं समझा.

दीपाश्री मिश्रा, मुंबई (महा.)

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मेरे पापा डीएसपी पद से रिटायर हुए थे. अपने काम व ड्यूटी के प्रति हमेशा सजग व कर्मठ रहे. उन्हें ईमानदारी व अनुशासन का इनाम राष्ट्रपति से मैडल के रूप में मिला. एक बार हम लोग भोपाल से नासिक जा रहे थे. हमारे टिकट वेटिंग में थे जो गाड़ी में बैठने तक कन्फर्म नहीं हुए थे. हम लोग डब्बे के अंदर साइड की एक बर्थ पर बैठ गए. टिकटचैकर के आते ही लोग उस के पीछे लग गए और लोगों के टिकट कन्फर्म होने लगे. मेरे पापा शांत बैठे टिकटचैकर की राह देखते रहे. जब टिकटचैकर आया तो पापा ने उसे टिकट दिए. न कोई आश्वासन न पैसे की बात, वह टिकट ले कर चला गया. 5-7 मिनट के बाद आया और कहने लगा, ‘‘साहब, बड़ी भीड़ है, टिकट कन्फर्म होना मुश्किल है.’’ और हमारे सामने बैठ गया. वह उम्मीद करने लगा कि पापा कुछ पैसे देने को कहें तो वह हमारे टिकट कन्फर्म कर दे.

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