मैं एक विद्यालय में गणित शिक्षक के रूप में कार्यरत हूं. विज्ञान शिक्षक नहीं रहने के कारण प्राचार्य बारबार मुझे विज्ञान पढ़ाने के लिए बाध्य कर रहे थे. मैं हमेशा नकारात्मक जवाब दे रहा था. एक दिन उन्होंने रजिस्टर में विज्ञान पढ़ाने के लिए मुझे लिखित रूप में आदेश दे दिया. बाध्य हो कर मुझे स्वीकार करना पड़ा. मैं ने कड़ी मेहनत और लगन से विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिया. शुरूशुरू में मुझे परेशानी के साथसाथ भय भी लग रहा था लेकिन लिखित आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्य था. लेकिन विज्ञान के दूसरे शिक्षक आने के बावजूद बच्चे अभी भी मुझे ही विज्ञानशिक्षक के रूप में देखना चाहते हैं. इतना ही नहीं, जब बच्चों का परीक्षाफल निकला तो विज्ञान में बच्चों का प्रदर्शन बहुत ही बेहतर था और मुझे गणित शिक्षक के रूप में तो नहीं पर, विज्ञान शिक्षक के रूप में प्रशस्ति प्रमाणपत्र अवश्य मिला. अपने पूर्वाग्रह पर आज मुझे दुख ही नहीं, शर्मिंदगी महसूस हो रही है.

अशोक कुमार महतो, सुंदरगढ़ (ओडिशा)

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मैं और मेरी देवरानी एकसाथ रहते हैं. मेरे पति और देवर रिश्तेदारी में दिल्ली गए हुए थे. मेरे पोते को रात से हलका बुखार था. हम दोनों के बेटेबहुएं जौब पर गए हुए थे. दिन में डेढ़ बजे बच्चे को काफी तेज बुखार हो गया. उस की आंखें पलटने लगीं. हम दोनों बहुत घबरा गए. हमारे पास 1200 रुपए ही थे. एटीएम कार्ड नहीं था. पास में एक रिकशा वाला रहता था, उसे बुलाया. हमें घबराया देख कर वह बोला, ‘‘आंटीजी, आप डाक्टर को दिखाइए, मैं पैसे बाद में ले लूंगा.’’ नजदीक के डाक्टर को दिखाया. उन्होंने बच्चे को 2 घंटे अस्पताल में रखा. बच्चे को कुछ फर्क पड़ा तब हम घर आए. हमारे पास जो रुपए थे वे डाक्टर को दे दिए, दवा कैसे लाएं. तुरंत दवा भी देनी थी. कालोनी में ज्यादा जानपहचान न थी. अचानक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो एक अपरिचित चेहरा था. (जब मेरे देवर लखनऊ में रह कर पढ़ते थे वे तब उन के दोस्त व रूमपार्टनर थे.) वे लंदन में रहते थे. उस वक्त भारत आए हुए थे. सरप्राइज देने के विचार से देवर से मिलने आए थे. जब उन्होंने हमारी समस्या सुनी तो तुरंत जा कर दवा ले कर आए. साथ ही 10 हजार रुपए हमें दे गए. जब तक बेटेबहू आए तब तक बच्चे की हालत संभल गई थी.

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