हमारा विवाह हुए कुछ ही समय बीता था यानी हनीमून पीरियड खत्म हुआ था. जानेअनजाने हम दोनों के बीच झगड़े की शुरुआत हो गई. कारण हो सकता है कि हम दोनों की डाक्टरी शिक्षा बराबरी की रही हो. पत्नी एक दिन बेवजह ही मेरे ऊपर लालपीली हुई जा रही थी. मैं कुछ देर सहता रहा. मर्द होने के नाते कुछ कह बैठा, जो मुझे याद नहीं, पर होगा कुछ सार्थक ही, जिस कारण वह कोपभवन में चली गई. कहने को तो कह गया पर अब सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. दिन तो गुजर गया पर रात कैसे कटेगी, यह सोचता रहा. त्रिया हठ तो सुन रखा था, सोचा कुछ हम भी कर के दिखाएं. मैं जोरजोर से चिल्लाने लगा कि मेरी सांस फूल रही है. सांस लेना दूभर हो चला है. मैं अब नहीं बचूंगा, रानी. जा रहा हूं. अलविदा, शुक्रिया जैसे जितने डायलौग हिंदी फिल्मों के याद आ रहे थे, उन्हें दोहरा रहा था और फिल्मों जैसा ही नाटक कर रहा था. श्रीमतीजी दौड़ती हुई आईं और रूखे स्वर में बोलीं, ‘‘कहां जा रहे हो अकेले, मुझे भी साथ ले लो.’’

‘‘नहीं, मुझे अकेले ही जाना है. सफर बहुत लंबा है. औक्सीजन की कमी के कारण सांस फूल रही है और मैं नीलापीला पड़ता जा रहा हूं. औक्सीजन का इंतजाम करो. पर हां, औक्सीजन सिलेंडर लाने में बहुत देर हो जाएगी, तब तक मौत गले लग जाएगी.’’

‘‘नहींनहीं, प्रीतम, ऐसा न होने दूंगी. कहो, क्या करना है?’’

‘‘माउथ टू माउथ सांस देना आता है न?’’

‘‘हांहां.’’

‘‘तो शीघ्र ही शुरू कर दो वरना मेरी जान तुम्हारे सामने ही निकल जाएगी. तुम हाथ मलती रह जाओगी.’’ पत्नी ने जैसे ही सांस देने की प्रक्रिया की पोजीशन ली और होंठ दो से चार हुए, मैं गा उठा, ‘‘छू लेने दो नाजुक होंठों को...’’ श्रीमतीजी दूर छिटक कर और रोंआसी सूरत ले कर बोलीं, ‘‘तुम बडे़ वो हो, ऐसा तमाशा क्यों किया?’’ ‘‘तुम्हें मनाने के लिए प्रीतमा.’’

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