कंप्यूटर, इंटरनैट के इस दौर में भी दलित सिर पर लाद कर मैला ढोएं, सीवेज लाइनों में घुस कर सफाई करें और मरे मवेशियों की चमड़ी उतारें, यह कतई सभ्य समाज की पहचान नहीं है. लेकिन चूंकि यह सब भगवान और धर्म की आड़ में होता आया है, इसलिए कई ऐतिहासिक आंदोलनों के बाद भी दलितों के हालात में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है.

इकलौती अच्छी बात यह है कि अब युवा दलित नेतृत्व उभर रहा है जो राजनीति की हकीकत समझता है. गुजरात के जिग्नेश मेवानी अंगरेजी से एमए हैं, अधिवक्ता और पत्रकार भी हैं. दलितों को दबाए रखना धार्मिक षड्यंत्र है, यह समझ उन में है. आम आदमी पार्टी से इस्तीफा दे चुके इस युवा ने ऊना के दलितों की अगुआई की थी और अभी भी कर रहे हैं. दलितों को उन से उम्मीदें हैं जिन पर खरा उतरने के लिए जिस इच्छाशक्ति और समझ की जरूरत होती है, वह उन में हालफिलहाल दिख तो रही है.

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