मेरी पत्नी और मेरे 2 बच्चे भिलाई में 2 बैडरूम वाले क्वार्टर में रहते थे. मेरे पिताजी कुछ साल पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके थे. हम लोग 3 भाई और एक बहन हैं. पिताजी और माताजी बारीबारी से कभी हमारे पास तो कभी मेरे बड़े भाइयों के पास रहने जाते थे यानी कि कभी लखनऊ, कभी काशीपुर तो कभी भिलाई में हमारे साथ रहते थे. सबकुछ बहुत अच्छे से चल रहा था किंतु अचानक एक दिन जब वे भिलाई में थे, मेरे पिताजी का हृदयाघात से देहांत हो गया. हम लोग सदमे की स्थिति में आ गए थे. मेरे पिताजी अपनी पीढ़ी में सब से बड़े व माननीय थे. मेरे भाइबहनों के अतिरिक्त ददिहाल और ननिहाल से आने वालों का तांता लग गया. 24 घंटों के अंदर बहुत से नातेरिश्तेदार हमारे घर भिलाई पहुंच चुके थे. मैं और मेरी पत्नी दुख और सदमे से बाहर निकल कर इस चिंता में आ गए कि अचानक इतने सारे लोगों के रहने, खाने और अन्य सुविधाओं का इंतजाम कैसे करेंगे. हमारा कोई और रिश्तेदार भी भिलाई में नहीं रहता था. ऐसी स्थिति में मेरे घनिष्ठ मित्रों, पड़ोसियों ने इतनी अच्छी तरह से उन का खयाल रखा कि हम लोगों को पता ही नहीं चला कि कौन रिश्तेदार कौन सी ट्रेन से आया है, स्टेशन से घर कैसे पहुंचा, कहां खाना खाया और कहां सोया. मैं और मेरी पत्नी आज भी इस बारे में सोचते हैं कि दुख तो अपनी जगह था लेकिन दोस्तों और पड़ोसियों द्वारा उस स्थिति को इतनी अच्छी तरह से संभालना हमारे जीवन की एक अमिट मुसकान है.

राजीव भटनागर, सूरत (गुजरात)

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बात तब की है जब मेरी फुफेरी बहन की सास की तबीयत खराब होने पर उन्हें अस्पताल में दाखिल किया गया. पता चला कि उन की किडनियां खराब हो गई हैं. सवाल यह था कि उन को कौन किडनी दे. उन के 2 बेटे और 2 बेटियां थीं. हम उन के घर गए तब सब साथ में बैठ कर बातें कर रहे थे. मेरे साथ मेरे पति और 11 साल का बेटा था. सब लोग (उन के बेटे और बेटियां) बहाना बना रहे थे किडनी न देने के लिए. तब मेरे बेटे ने जो 11 साल का है कहा, ‘‘मैं दादी को किडनी दूंगा, मुझे कोई दिक्कत नहीं है.’’ उस के बोलते ही सब की आंखें फटी की फटी रह गईं और सब के सिर झुक गए. मेरे बेटे की बात उन के दिल को छू गई और सब बेटे, बेटियां किडनी देने को तैयार हो गए. बहन की सास का औपरेशन हो गया और वह भलीचंगी हो कर घर आ गईं.   

जागृति शास्त्री, वडोदरा (गुजरात)

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