गिरिजा देवी की ठुमरी टैलीविजन पर आ रही थी. बोल थे, ‘नदिया किनारे...’ इन्हीं शब्दों को उन्होंने तरहतरह से कई बार गाया. मेरी ममेरी बहन मथुरा से हमारे घर आई हुई थी. बोली, मैं अभी सब के लिए चाय बना कर लाती हूं तब तक तो पता चल ही जाएगा कि आखिर नदिया किनारे हुआ क्या. उस की यह बात सुन कर हम हंसे बिना नहीं रह सके.

अविनाश भटनागर, कल्याण (महा.)

*

मैं बरेली से कानपुर आ रहा था. बस में मेरे आगे वाली सीट पर एक अच्छे परिवार की प्रौढ़ महिला बैठी हुई थी. दोपहर में खिड़की की तरफ सीट पर धूप आने लगी. वह महिला खिड़की की तरफ से खिसकी और खाली सीट का टिकट कंडक्टर से बनवा लिया. अगले स्टौप पर बहुत सी सवारियां बस में चढ़ीं. खाली सीट देख कर कई यात्रियों ने पूछा, ‘क्या यह सीट खाली है?’ वह महिला बारबार यही कहती, ‘हम ने इस सीट का टिकट ले रखा है.’ यह देख कर एक व्यक्ति कहने लगा, ‘आप ने दुबई के शेख की तरह खाली सीट का टिकट ले रखा है. देख नहीं रही हैं, यह महिला छोटे बच्चे को गोद में लिए खड़ी है.’ उस पर कोई असर न हुआ. बस में बैठे अन्य यात्री भी व्यंग्य कर रहे थे.

अभी कानपुर आने में 1 घंटा बाकी था. बस का पहिया पंक्चर हो गया. सभी लोग सड़क के किनारे खड़े हो कर दूसरी बस का इंतजार करने लगे. काफी देर बाद दूसरी बस आई. वह पहले से ही भरी हुई थी. किसी तरह सवारियां बैठाई गईं. अधिकतर लोग खड़े हुए थे. वह महिला भी खड़े हो कर यात्रा करने को मजबूर थी. अब उस का चेहरा देखने लायक था.

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