2014 में चुनाव अभियान के वक्त नरेन्द्र मोदी ने कोयला उद्योग में सुधार को अपने विकास एजेंडे के केन्द्र में रखने का वादा किया था. उस साल सितंबर में सर्वोच्च अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कोयला खंड में प्रायः समस्त आबद्ध खनन को रद्द कर दिया था. इस फैसले ने एक बड़े घोटाले- कोलगट- पर रोक लगा दी थी. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार के पतन में इस घोटाले का कम योगदान नहीं था.

सर्वोच्च अदालत ने भारत सरकार और सार्वजनिक कंपनियों को निजी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम बनाने से रोक दिया था जिसके जरिए आवंटित कोयला खंड में निशुल्क उत्खनन कर निजी कंपनियां मुनाफा कमा रही थीं. अदालत ने अपने फैसले में कहा थाः ‘‘सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह देश की प्राकृतिक संपदा को कुछ लोगों की निजी संपत्ति नहीं मानेगी जो मनमर्जी से इसे लुटा दें.’’ अपने फैसले में अदालत ने कुल 214 संयुक्त उपक्रम और कोयला खंड आवंटनों को रद्द कर दिया था.

2014 के सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने कोयला उद्योग के लिए नए कानूनों और सुधारों के लिए जमीन तैयार की. अगले साल राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इन बदलावों को लक्षित कर दो कानून पारित किएः कोयला खान (विशेष प्रावधान) विधेयक 2015 और खान और खनिज विकास विनियमन अधिनियम. कोयला मंत्रालय ने अपनी प्रेस रिलीज में इसके बारे में कहा, ‘‘यह वर्ष इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा.’’ कोयला खनन कानून में यह व्यवस्था की गई है कि पहले जिन खंडों का आवंटन रद्द किया गया है वे खंड निजी या सार्वजनिक कंपनियों को निलामी के जरिए आवंटित होंगे या सीधे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सौंप दिए जाएंगे.’’

कानून को पारित हुए तीन साल हो चुका है. लेकिन क्या यह लागू हो रहा? यह एक बड़ा सवाल है. सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकरी से पता चलता है कि कोयला मंत्रालय के पास निजी कंपनियों और सार्वजनिक कंपनियों के बीच हुए करारों से जुड़े दस्तावेजों की कॉपी नहीं हैं. सरकारी जांच के आभाव में आज भी वह सब हो रहा है जिसे अवैध कह कर सर्वोच्च अदालत ने रोक दिया था. 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और उसके बाद बनाए गए कानूनों के अप्रभावी क्रियान्वयन से आज भी निजी कंपनियों को वैसा ही फायदा हो रहा है जैसा पहले होता था.

कोयला खान कानून के पारित होने के बाद से अब तक कुल कोयला खंड का 27 प्रतिशत नीलामी के जरिए आवंटित किया गया है और 84 प्रतिशत के आस पास को सीधे सार्वजनिक कंपनियों को सौंप दिया गया. नीलामी के जरिए आवंटित खंडों के बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की थी, ‘‘मात्र 33 खंडों के आवंटन से दो लाख करोड़ रुपये की आय यह साबित करती है कि नीतिगत प्रशासन से भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म किया जा सकता है.’’ किंतु कोयला और स्टील के लिए संसद की स्थाई समिति की इस साल अगस्त की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान सरकार के कार्यकाल में इस वर्ष अप्रैल माह तक कोयला आवटंन से प्राप्त राजस्व 5399 करोड़ रुपये है. समाचार पत्र बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के हवाले से इस साल जून तक कोयला आवंटन से प्राप्त कुल राजस्व 5684 करोड़ रुपये है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दावे का मात्र 3 प्रतिशत है.

जिन सार्वजनिक कंपनियों को कोयला खंड आवंटित किया गया उनमें से अधिकांश ने निजी कंपनियों को माइन डिवेलपर कम आपरेटर (एमडीओ) नियुक्त किया है जिन पर खदान के रखरखाव, विकास और संचालन की जिम्मेदारी है. जबकि सार्वजनिक कंपनियों और एमडीओ के बीच होने वाले करार केन्द्र सरकार और कोयला मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकते तो भी निजी कंपनियां इन समझौतों की शर्तों का खुलासा करने से इनकार करती हैं. इस तरह की अपारदर्शिता 2014 के सर्वोच्च अदालत के फैसले और उसके बाद पारित कानूनों के खिलाफ है.

यहां दो तरह की समस्या देखी जा सकती है. सीधे तौर पर आवंटित किए खंडों का 75 प्रतिशत सरकारी स्वामित्व वाली ऐसी कंपनियों (पीएसयू) को दिया गया है जिनके पास उत्खनन का सीमित या शून्य अनुभव है. इन पीएसयू ने एमडीओ के साथ ऐसे करार किए हैं जो अनुचित तरीके से एमडीओ को लाभ पहुंचाते हैं. हाल में 21 कोयला खंडों के लिए हुए 16 एमडीओ करारों का पता लगा है. जो पीएसयू इन समझौतों में शामिल हैं वे हैं: राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड, छत्तीसगढ़ स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड, पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड, और पश्चिम बंगाल पॉवर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन. ये कंपनियां राज्य सरकार द्वारा संचालित हैं और इनमें से अधिकांश कंपनियों के पास कोयला उत्खनन का कोई अनुभव नहीं है.

खनन कानून में ‘‘खनन ठेकेदार’’ जैसा शब्द नहीं है और इसमें एमडीओ का उल्लेख भी नहीं किया गया है. देश के कोयला उद्योग के लिए बने किसी भी कानून में एमडीओ के बारे में कुछ नहीं लिखा है. कानून बस इस बात की इजाजत देता है कि कंपनी सिर्फ खदान के विकास के लिए बाहरी पार्टी से समझौता कर सकती है यदि वह पार्टी ठेकेदार है, एमडीओ नहीं. ठेकेदार और एमडीओ में अंतर बहुत स्पष्ट है.

खनन ठेकेदार का काम कोयला खंड में उत्खनन करना और पीएसयू के प्रोजक्ट तक कोयले को पहुंचाना है. ऐसे ठेकेदार को खनन और ढुलाई की फीस अदा की जाती है. पीएसयू पर मालिकाना अधिकार रखने वाली राज्य सरकारों द्वारा जारी टेंडर के अनुसार एमडीओ पर उत्खनन परियोजनाओं में आरंभिक निवेश, योजना निर्माण, खदानों का विकास और संचालन और कोयल की आपूर्ति ‘‘प्रतिस्पर्धात्म मूल्य’’ में करने की जिम्मेदारी है. इससे होता यह है कि पीएसयू को बाजार भाव में कोयला खरीदना पड़ रहा है क्योंकि इन्हें उत्खनन सेवा के अतिरिक्त कोयले का पूर्ण भुगतान एमडीओ को करना पड़ता है. यानी, पीएसयू को आवंटित कोयला खंड से कोयला निकालने पर खुद पीएसयू को कीमत चुकानी पड़ रही है. उर्जा उत्पादक कंपनियों को कोयला खंड आवंटन की व्यवस्था इसलिए की गई थी कि उन्हें बिचैलियों से छुटकारा मिल सके और इससे होने वाले लाभ को ये कंपनियां उपभोक्ताओं को हस्तांतरित कर सके.

सर्वोच्च अदालत के 2014 के निर्णय वाले मामले के एक याचिकाकर्ता सुदीप श्रीवास्तव ने मुझे बताया, ‘‘नए कानून में एमडीओ की कोई व्यवस्था नहीं है’’. जो कानून 2014 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पालन हेतु लाया गया हो वही कानून और उससे संबंधित नियम फैसले के विपरीत एमडीओ की अनुमति कैसे दे सकते हैं? यदि एमडीओ के पास सार्वजनिक कंपनी की ओर से भूमि अधिग्रहण करने और पर्यावरण संबंधित अनुमति लेने की शक्ति है तो उसे कैसे ठेकेदार माना जा सकता है?’’

प्रियांशु गुप्ता बताते हैं, ‘‘असल में सार्वजनिक कंपनिया छद्म कंपनियों की भांति काम कर रही हैं और एमडीओ की व्यवस्था से निजीकरण के लिए पीछे का दरवाजा खोल दिया गया है.’’ प्रियांशु एक शोधकर्ता और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सदस्य हैं. यह आंदोलन दो दर्जन जन संगठनों, ट्रेड यूनियनों और नागरिक समूहों का गठबंधन है. इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में जुलाई में प्रकाशित लेख में गुप्ता और अनुज गोयल (गोयल भी छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के सदस्य)- ने लिखा है, ‘‘कोयला उत्खनन में एमडीओ के रास्ते रिस्क रिर्टन (जोखिम से सुरक्षा) का प्रावधान निजी कंपनियों को आकर्षित करता है.’’ आगे लेख में बताया गया है कि ‘‘सरकारी कंपनियों द्वारा कोयले का उत्खनन कार्य व्यावसायिक रूप से अधिक फायदेमंद है क्योंकि इन्हें उच्च मूल्य चुकाना नहीं पड़ता. बल्कि प्रत्येक एक सौ टन उत्खनन में 100 रुपये रॉयल्टी देनी होती है. विकास जोखिम और अग्रिम खर्च सरकारी कंपनियों को उठाना होता है.’’

उदाहरण के लिए 2015 की मई में छत्तीसगढ़ स्टेट पावर जनरेशन कंपनी लिमिटेड ने जो टेंडर गारे पेलमा सेक्टर-3 खदान में उत्खनन के लिए टेंडर जारी किया था उसमें उल्लेख है, ‘‘उत्खनन परियोजनाओं में अधिकांश निवेश एमडीओ करेगा और वह सीएसजीपीसीएल को प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य में कोयला आपूर्ति सहित योजना विकास, कोयला खदान के संचालन और सभी आवश्यक गतिविधियों को पूरा करेगा.’’ श्रीवास्तव कहते हैं कि यह व्यवस्था प्रभावकारी रूप से बिना नीलामी के कोयला खंड को निजी कंपनी के हवाले कर देती है. इसके बाद निजी कंपनी कोयले को सार्वजनिक कंपनी को वापस बेच देती है. ‘‘कोयले की ‘बिक्री’ की जगह ये लोग ‘आपूर्ति’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं जो वास्तव में बिक्री ही है’’.

श्रीवास्तव बताते हैं कि कच्चे कोयले की प्रोसेसिंग प्रक्रिया में निकलने वाला निचले दर्जे का कोयला, जिसे औद्योगिक भाषा में मिडलिंग्स या रिजेक्ट कहा जाता है, भी एमडीओ को सौंप दिया जाता है. श्रीवास्तव के अनुसार ‘‘यह कोयला भी बाजार में बिक जाता है. खनन किए गए कोयले का 22 से 35 प्रतिशत हिस्सा रिजेक्ट होता है.’’ सरकारी और निजी कंपनियों के बीच होने वाले करारों की जांच करने में कोयला मंत्रालय की असफलता के चलते इस नए पीएसयू-एमडीओ मॉडल को- जो निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाता है- फलने-फूलने का अवसर दिया है.

कोयला खान कानून में साफ तौर पर कहा गया है कि जिन कंपनियों को कोयला खंड आवंटित किया गया है उन्हें ठेकेदारों से काम करवाने के संबंध में केन्द्र या राज्य सरकारों को जानकारी देनी होगी. कानून कहता हैः ‘‘ऐसे मामलों में जहां कोयला उत्खनन से संबंधित कार्य में, कोयला खदान का विकास ठेकेदार के जरिए कराया जाएगा, वहां ऐसा प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी प्रक्रिया के जरिए किया जाएगा और जब आवंटन हासिल करने वाली कंपनी ठेकेदारों को इस्तेमाल करेगी तब वह संबंधित राज्य सरकार, केन्द्र सरकार और नामनिर्दिष्ट प्राधिकारी को जानकारी कराएगी. साथ ही, करार के होने के बाद जल्द से जल्द इसकी शर्तों के बारे में भी सूचित करेगी.’’

केन्द्र सरकार ने जो आवंटन समझौते का प्रारूप तैयार किया है उसमें भी साफ तौर पर कहा गया है कि पीएसयू और अनुबंधित ठेकेदार के बीच हुए करार की हस्ताक्षर की गई कॉपी नामनिर्दिष्ट प्राधिकारी- कोयला मंत्रालय के सचिव- के पास करार के लागू होने के 15 दिनों के भीतर जमा की जाएगी. कोयला खान  विधेयक जब से पारित हुआ है तब से लेकर हाल तक 89 खंडो को पुनः आवंटित किया गया है और 59 कोयला खदानों को सीधे सीधे पीएयू के हवाले कर दिया गया है.

कोयला मंत्रालय यह स्वीकार करता है कि- उसने इस बारे में कोई कारण नहीं दिया है- उसके पास पीएसयू और एमडीओ के बीच हुए किसी भी करार की कॉपी नहीं है. अनुज गोयल के आरटीआई निवेदन के जवाब में 24 अगस्त 2018 को कोयला मंत्रालय ने बताया है कि उसके पास किसी भी एमडीओ समझौते की कॉपी नहीं है और मंत्रालय ने 17 अगस्त को सभी राज्य सरकारों को पत्र लिख कर एमडीओ के साथ संबंधित करार की कॉपी भेजने को कहा है.

बार बार जानकारी मांगने पर पीएसयू ने एमडीओ के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने कोयला मंत्रालय, 13 राज्य सरकारों, केन्द्र, पश्चिम बंगाल एवं झारखंड सरकार द्वारा संयुक्त रूप से संचालित दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन, और उत्तर प्रदेश और केन्द्र द्वारा संचालित टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड को 34 आरटीआई आवेदन किए हैं. इन आवेदनों के जवाब मैंने देखे हैं. खनन गतिविधियों पर प्राधिकार रखने वाले राज्य सरकार के विभागों ने जवाब में लिखा है कि उनके पास एमडीओ करार की कोई भी कॉपी नहीं है. जबकि संबंधित पीएसयू ने एमडीओ के बारे में कोई भी जानकारी देने से इनकार कर दिया है.

उदाहरण के लिए 2018 की मई में खाग्रा जयदेव और टूबेड खदानों के एमडीओ के बारे में मांगी गई सूचना के बारे में दामोदर घाटी कॉर्पोरेशन ने बताया थाः माइन डिवेलपर कम ऑपरेटर के साथ जो समझौत हुआ है गोपनीय और भारी भरकम दस्तावेज है इसलिए इसकी कॉपी साझा नहीं की जा सकती.’’ इसी प्रकार तेलंगाना राज्य विद्युत उत्पादन कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने मई 2018 में एएमआर से करार के बारे में आरटीआई का जवाब देते हुए लिखा है, ‘‘इस बारे में जानकारी आरटीआई कानून के बाहर है क्योंकि इसमें जो जानकारियां है वह व्यावसायिक भरोसे और व्यापार गुप्तता से संबंधित हैं जो कंपनी के बौद्धिक हितों को नुकसान पहुंचा सकती हैं.’’ कंपनी ने यह भी दावा किया कि ‘‘इस समझौते को विशेषज्ञों ने बहुत समय लगा कर तैयार किया है और विशेषज्ञों से राय लेने के लिए भारी फीस चुकाई गई है.’’

मार्च 2018 में द कैरेवन में प्रकाशित खोजी रिपोर्ट कोलगेट 2.0 में इस बात का खुलासा किया गया था कि राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (आरआरवियूएनएल) और अडानी समूह की कंपनी अडानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड का संयुक्त उपक्रम सर्वोच्च अदालत के 2014 के फैसले से पहले वाली शर्तों पर ही काम कर रहा है. जून 2018 की आरटीआई आवेदन के जवाब में आरआरवियूएनएल ने भी यही कहा कि ‘‘अडानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड के साथ उसके एमडीओ करार की जानकारी तकनीकी और व्यावसायिक रूप से गुप्त जानकारी है’’ जिसके कारण आरआरवियूएलएल यह जानकारी साझा नहीं कर सकती क्योंकि इससे एमडीओ, जो कि एक थर्ड पार्टी है, उसके व्यावसायिक हितों को गंभीर नुकसान पहुंचेगा.’’ जून 2018 में परसा ईस्ट और केटे बासन और परसा और केटे एक्सटेंशन खंड के साथ उसके खनन करार को आरआरयूवियूएनएल ने साझा तो किया लेकिन उस करार की कॉपी में सभी तकनीकी और व्यवसायिक शर्तों को मिटा कर.

10 अगस्त को कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने राज्य सभा में कहा था कि एमडीओ करारों के लिए मॉडल अनुबंध करार में सूचना के अधिकार कानून 2005 के प्रावधानों और खुलासे की आवश्यकताएं लागू होती हैं. एमडीओ समझौते से संबंधित सूचना देने से इनकार कर, पीएसयू कोयला मंत्री के संसद में दिए बयान का उल्लंघन कर रही हैं.

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